________________
ज्ञाताधर्मकथा-१/-/५/६३
१११
(अध्ययन-५-शैलक) [६३भगवन ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवें ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती नगरी थी । वह पूर्व-पश्चिम में लम्बी
और उत्तर-दक्षिण में चौड़ी थी । नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी । वह कुबेर की मति से निर्मित हुई थी । सुवर्ण के श्रेष्ठ प्राकार से और पंचरंगी नान मणियों के बने कंगूरों से शोभित थी । अलकापुरी समान सुन्दर थी । उसके निवासी जन प्रमोदयुक्त एवं क्रीड़ा करने में तत्पर रहते थे । वह साक्षात् देवलोक सरीखी थी।
उस द्वारका नगरी के बाहर ईशानकोण में रैवतक नामक पर्वत था । वह बहुत ऊँचा था । उसके शिखर गगन-तल को स्पर्श करते थे । वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं और बल्लियो से व्याप्त था । हंस, मृग, मयूर, क्रोंच, सारस, चक्रवाक, मगनसारिका और कोयल आदि पक्षियों के झुंडों से व्याप्त था । उसमें अनेक तट और गंडशैल थे । बहुसंख्यक गुफाएं थीं । झरने,प्रपात, प्राग्भार और शिखर थे । वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समूहों, चारण मुनियों और विद्याधरों के मिथुनों से युक्त था । उसमें दशार वंश के समुद्रविजय आदि वीर पुरुष थे, जो कि नेमिनाथ के साथ होने के कारण तीनों लोकों से भी अधिक बलवान् थे, नित्य नये उत्सव होते रहते थे । वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रसन्नता प्रदान करनेवाला, दर्शनीय, अभिरूप तथआ प्रतिरूप था । उस रैवतक पर्वत से न अधिक दूर और न अधिक समीप एक नन्दनवन नामन उद्यान था । वह सब ऋतुओं संबंन्धी पुष्पों और फलों से समृद्ध था, मनोहर था । नन्दनवन के समान आनन्दप्रद, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप था । उस उद्यान के ठीक वीचोंबीच सुरप्रिय नामकदिव्य यक्ष-आयतन था ।
उस द्वारका नगरी में महाराज कृष्ण नामक वासुदेव निवास करते थे । वह वासुदेव वहां समुद्रविजय आदि दश दशारों, बलदेव आदि पाँच महावीरों, उग्रसेन आदि सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब आदि साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन आदि इक्कीस हजार पुरुषों-महान् पुरुषार्थ वाले जनों, महासेन आदि छप्पन हजार बलवान् पुरुषों, रुक्मिणी आदि बत्तीस हजार रानियों, अनंगसेना आदि अनेक सहस्त्र गणिकाओं तथा अन्य बहुत-से ईश्वरों तलवरों यावत् सार्थवाह आदि का एवं उत्तर दिशा में वैताढ्य पर्वत पर्यन्त तथा अन्य तीन दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का और द्वारका नगरी का अधिपतित्व करते हुए और पालन करते हुए विचरते थे ।
[६४] द्वारका नगरी में थावच्चा नामक एक गाथापत्नी निवास करती थी । वह समृद्धि वाली थी यावत् बहुत लोग मिलकर भी उसका पराभव नहीं कर सकते थे । उस थावच्चा गाथापत्नी का थावच्चपुत्र नामक सार्थवाह का बालक पुत्र था। उसके हाथ-पैर अत्यन्त सुकुमार थे । वह परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीवाला, प्रमाणोपेत अंगोपांगों से सम्पन्न और चन्द्रमा के समान सौम्य आकृतिवाला था । सुन्दर रूपवान् था । उस थावच्चा गाथापत्नी ने उस पुत्र को कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ जानकर शुभतिथि, करण, नक्षत्र और मुहर्त में कलाचार्य के पास भेजा । फिर भोग भोगने में समर्थ हुआ जानकर इभ्यकुल की बत्तीस कुमारिकाओं के साथ एक ही दिन में पाणिग्रहण कराया । प्रासाद आदि बत्तीस-बत्तीस का