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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
निन्दा करने योग्य, समक्ष में ही गर्दा करने योग्य और परिभव के योग्य होता है । पर भव में भी बहुत दंड पाता है यावत् । परिभ्रमण करेगा ।
[६१] जिनदत्त का पुत्र जहां मयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में निःशंक रहा । 'मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरी-बालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटापलटा नहीं यावत् बजाया नहीं आदि । इस कारण उलट-पलट न करने से और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुआ । तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा । देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूर-पोषकों को बुलाया । इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! तुम मयूर के इस बच्चे को अनेक मयूर को पोषण देने योग्य पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हुए और संगोपन करते हुए बड़ा करो और नृत्यकला सिखलाओ । तब उस मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की । उस मयूर-बालक को ग्रहण किया । ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ आये । आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्य कला सिखलाने लगे ।
तत्पश्चात् मयूरी का बच्चा बचपन से मुक्त हुआ । उसमें विज्ञान का परिणमन हुआ। युवावस्था को प्राप्त हुआ । लक्षणों और तिल आदि व्यंजनों के गुणों से युक्त हुआ । चौड़ाई रूप मान, स्थूलता रूप उन्मान और लम्बाई रूप प्रमाण से उसके पंखों और पिच्छों का समूह परिपूर्ण हुआ । उसके पंख रंग-बिरंगे हो गए । उनमें सैकड़ों चन्द्रक थे । वह नीले कंठ वाला
और नृत्य करने के स्वभाव वाला हुआ । एक चुटकी बजाने से अनेक प्रकार के सैकड़ों केकाव करता हुआ विचरण करने लगा । तत्पश्चात् मयूरपालकों ने उस मयूर के बच्चे को बचपन से मुक्त यावत् केकारण करता हुआ देख कर उस मयूर-वच्चे को ग्रहण किया । जिनदत्त के पुत्र के पास ले गये । तब जिनदत्त के पुत्र सार्थवाहदारक ने मयूर-बालक को बचपन से मुक्त यावत् केकाव करता देखकर, हृष्ट-तुष्ट होरक उन्हें जीविका के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया । प्रीतिदान देकर विदा किया । तत्पश्चात् वह मयूर-बालक जिनदत्त के पुत्र द्वारा एक चुटकी बजाने पर लांगूल के भंग के समान अपनी गर्दन टेढ़ी करता था । उसके शरीर पर पसीना आ जाता था अथवा उसके नेत्र के कोने श्वेत वर्ण के हो गये थे । वह बिखरे पिच्छों वाले दोनों पंखों को शरीर से जुदा कर लेता था । वह चन्द्रक आदि से युक्त पिच्छों के समूह को ऊँचा कर लेता था और सैकड़ों केकाराव करता हुआ नृत्य करता था । तत्पश्चात् वह जिनदत्त का पुत्र उस मयूर-बालक के द्वारा चम्पानगरी के श्रृंगाटकों, मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों की होड़ में विजय प्राप्त करता था ।
हे आयुष्मान् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो साधु या साध्वी दीक्षित होकर पाँच महाव्रतों में, षट् जीवनिकाय में तथा निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंका से रहित, काँक्षा से रहित तथा विचिकित्सा से रहित होता हैं, वह इसी भव में बहुत से श्रमणों एवं श्रमणियों में मान-सम्मान प्राप्त करके यावत् संसार रूप अटवी को पार करेगा । हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाता के तृतीय अध्ययन का अर्थ फरमाया है ।
अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण