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ज्ञाताधर्मकथा-१/-/३/५९
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जोर-जोर से आवाज करके केकाव करती हुई मालुकाकच्छ से बाहर निकली । एक वृक्ष की जाली पर स्थित होकर उन सार्थवाहपुत्रों को तथा मालुकाकच्छ को अपलक दृष्टि से देखने लगी। तब उन सातवाहपुक्षों ने आपस में एक दूसरे को बुलाया और इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें आता देखकर भयभीत हुई, स्तब्ध रह गई, त्रास को प्राप्त हुई, उद्विग्न हुई, भाग गई और जोर-जोर की आवाज करके यावत् हम लोगों को तथा मालुकाकच्छ को पुनःपुनः देख रही हैं, अतएव इसको कोई कारण होना चाहिए ।' वे मालुका-कच्छ के भीतर घुसे । उन्होंने वहाँ दे पुष्ट और अनुक्रम से वृद्धि प्राप्त मयूरी-अंडे यावत् देखे, एक दूसरे को आवाज देकर इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय ! वनमयूरी के इन अंडों को अपनी उत्तम जाति की मुर्गी के अंडों में डलवा देना, अपने लिए अच्छा रहेगा । ऐसा करने से अपनी जातिवन्त मुर्गियों इन अंडों का
और अपने अंडों का अपने पंखों की हवा से रक्षण करती और सम्भालती रहेगी तो हमारे दो क्रीडा करने के मयूरी-बालक हो जायेंगे ।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की । अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया । इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ। इन अंडों को लेकर अपनी उत्तम जाति की मुर्गियों के अंडों में डाल दो ।' उन दासपुत्रों ने उन दोनो अंडों को मुर्गियों के अंडों में मिला दिया । तत्पश्चात् वे सार्थवाहपुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान में उद्यान की शोभा का अनुभव करते हुए विचरण करके उसी यान पर आरूढ होकर जहां चम्पा नगरी थी और जहाँ देवदत्ता गणिका के घर आये । देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया । देवदत्ता गणिका को विपुल जीविका के योग्य प्रीतिदान दिया । उसका सत्कार-सन्मान किया । दोनों देवदत्ता के घर से बाहर निकल कर जहाँ अपने-अपे घर थे, वहाँ आये । आकर अपने कार्य में संलग्न हो गये ।
[६०] तत्पश्चात् उनमें जो सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक था, वह कल सूर्य के देदीप्यमान होने पर जहाँ वनमयूरी का अंडा था, वहाँ आया । आकर उस मयूरी अंडे में शंकित हुआ, उसके फल की आकांक्षा करने लगा कि कब इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होगी? विचिकित्सा को प्राप्त हआ भेद को प्राप्त हआ, कलुषता को प्राप्त हआ । अतएव वह विचार करने लगा कि मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने का मयूरी-बालक उत्पन्न होगा अथवा नहीं होगा ? वह बार-बार उस अंडे को उद्धर्तन करने लगा, आसारण करने लगा संसारण करने लगा, चलाने लगा, हिलाने लगा, करने लगा, भूमि को खोदकर उसमें रखने लगा और बारबार उसे कान के पास ले जाकर बजाने लगा । तदनन्तर वह मयूरी-अंडा बार-बार उद्धर्तन करने से यावत् निर्जीव हो गया । सागरदत्त का पुत्र सार्थवाहदारक किसी समय जहाँ मयूरी का अंडा था वहाँ आया। उस मयूरी-अंडे को उसने पोचा देखा । देखकर 'ओह ! यह मयूरी का बच्चा मेरी क्रीया करने के योग्य न हुआ' ऐसा विचार करके खेदखिन्नचित्त होकर चिन्ता करने लगा। उसके सब मनोरथ विफल हो गए।
आयुष्मन् श्रमणो ! इस प्रकार जो साधु या साध्वी आचार्य या उपाध्यान के समीप प्रव्रज्या ग्रहण करके पाँच महाव्रतों के विषय में अथवा षट् जीवनिकाय के विषय में अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के विषय में शंका करता है या कलुषता को प्राप्त होता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं के द्वारा हीलना करने योग्य-मन से