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________________ भगवती-१३/-/१/५६४ ७५ जीवों के समान होते हैं । परम्परोपपन्नक नैरयिक संख्यात होते हैं । अनन्तरोपपन्नक के समान अनन्तरावगाढ, अनन्तराहारक और अनन्तरपर्याप्तक के विषय में कहना । परम्परोपपन्नक के समान परम्परावगाढ, परम्पराहारक, परम्परपर्याप्तक, चरम और अचरम (का कथन करना ।) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से असंख्यात योजन विस्तार वाले नरकों में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं; यावत् कितने अनाकारोपयोग वाले नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! एक समय में जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं । संख्यात योजन के समान असंख्यात योजनवाले नरकों के विषय में भी तीन आलापक कहने चाहिए । इनमें विशेषता यह है कि 'संख्यात' के बदले 'असंख्यात' कहना चाहिए । शेष सब यावत् 'असंख्यात अचरम कहे गए हैं', यहाँ तक पूर्ववत् कहना चाहिए। इनमें लेश्याओं में नानात्व है । लेश्यासम्बन्धी कथन प्रथम शतक के अनुसार तथा विशेष इतना ही है कि संख्यात योजन और असंख्यात योजन विस्तार वाले नारकावासों में से अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी संख्यात ही उद्धर्तन करते हैं, ऐसा कहना । शेष पूर्ववत् ।। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास हैं ? गौतम ! पच्चीस लाख । भगवन् ! वे नारकावास क्या संख्यात योजन विस्ताखाले हैं, अथवा असंख्यात योजन विस्ताखाले ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के अनुसार शर्कराप्रभा के विषय में कहना । विशेष यह है कि उत्पाद, उद्धर्तना और सत्ता, इन तीनों ही आलापकों में 'असंज्ञी' नहीं कहना । शेष सभी पूर्ववत् । भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास हैं ? गौतम ! पन्द्रह लाख । शेष सब कथन शर्कराप्रभा के समान करना । यहाँ लेश्याओं के विषय में विशेषता है । लेश्या का कथन प्रथम शतक के समान कहना। भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास कहे गए हैं ? गौतम! दस लाख । शर्कराप्रभा के समान यहाँ भी कहना । विशेषता यह है कि (इस पृथ्वी से) अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उद्धर्तन नहीं करते । शेष पूर्ववत् । भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास हैं ? गौतम ! तीन लाख । पंकप्रभापृथ्वी के समान यहाँ भी कहना । भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी में कितने नारकावास हैं । गौतम ! पांच कम एक लाख । शेष पंकप्रभा के समान जानना । भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी में अनुत्तर और बहुत बड़े कितने महानारकावास हैं ? गौतम ! पांच अनुत्तर और बहुत बड़े नारकावास हैं, यथा काल-यावत् अप्रतिप्रष्ठान । भगवन् ! वे नारकावास क्या संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, या असंख्यात योजन विस्तार वाले? गौतम ! एक (मध्य का अप्रतिष्ठान) नारकावास संख्यात योजन विस्तार वाला है, और शेष (चार नारकावास) असंख्यातयोजन विस्तार वाले हैं। भगवन् ! अधःसप्तमपृथ्वी के पांच अनुत्तर और बहुत बड़े यावत् महानरकों में से संख्यात योजन विस्तारवाले अप्रतिष्ठान नारकावास में एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! पंकप्रभा के समान कहना । विशेष यह है कि यहाँ तीन ज्ञानवाले न तो उत्पन्न होते हैं, न ही उद्धर्तन करते हैं । परन्तु इन पांचों नारकावासों में रत्नप्रभापृथ्वी आदि के समान तीनों ज्ञान वाले पाये जाते हैं । संख्यात योजन विस्तारखाले असंख्यात योजन विस्तारवाले नारकावासों के विषय में भी कहना । विशेष यह है कि यहाँ 'संख्यात' के स्थान पर 'असंख्यात' पाठ कहना । [५६५] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से संख्यात योजन
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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