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भगवती-१२/-/२/५३४
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की श्रमणोपासिका थी । वह सुकुमाल यावत् सुरूपा और जीवाजीवादि तत्त्वों की ज्ञाता यावत् विचरती थी।
[५३५] उस काल उस समय में महावीर स्वामी (कौशाम्बी) पधारे, यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी । उस समय उदयन राजा को जब यह पता लगा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उनसे इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! कौशाम्बी नगरी को भीतर और बाहर से शीघ्र ही साफ करवाओ; इत्यादि सब वर्णन कोणिक राजा के समान यावत् पर्युपासना करने लगा।
तदनन्तर वह जयन्ती श्रमणोपासिका भी इस समाचार को सुन कर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई और मृगावती के पास आकर इस प्रकार बोली-(इत्यादि आगे का सब कथन,) नौवें शतक में कृषभदत्त ब्राह्मण के प्रकरण के समान, यावत्-(हमारे लिए इह भव, परभव और दोनों भवों के लिए कल्याणप्रद और श्रेयस्कर) होगा; तक जानना चाहिए । तत्पश्चात् उस मृगावती देवी ने भी जयन्ती श्रमणोपासिका के वचन उसी प्रकार स्वीकार किये, जिस प्रकार देवानन्दा ने (ऋषभदत्त के वचन) यावत् स्वीकार किये थे । तत्पश्चात् उस मृगावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया
और उनसे इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! जिसमें वेगवान घोड़े जुते हों, ऐसा यावत श्रेष्ठ धार्मिक रथ जोत कर शीघ्र ही उपस्थित करो । कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् रथ लाकर उपस्थित किया और यावत् उनकी आज्ञा वापिस सौंपी । - इसके बाद उस मृगावती देवी और जयन्ती श्रमणोपासिका ने स्नानादि किया यावत् शरीर को अलंकृत किया । फिर कुब्जा दासियों के साथ वे दोनों अन्तःपुर से निकलीं । फिर वे दोनों बाहरी उपस्थानशाला में आई और जहाँ धार्मिक श्रेष्ठ यान था, उसके पास आ कर यावत् रथारूढ हुई । तब जयन्ती श्रमणोपासिका के साथ श्रेष्ठ धार्मिक यान पर आरूढ मृगावती देवी अपने परिवारसहित, यावत् धार्मिक श्रेष्ठ यान से नीचे उतरी, तक कहना चाहिए । तत्पश्चात् जयन्ती श्रमणोपासिका एवं बहुत-सी कुब्जा दासियों सहित मृगावती देवी श्रमण भगवान् महावीर की सेवा में देवानन्दा के समान पहुँची, यावत् भगवान् को वन्दना-नमस्कार किया और उदयन राजा को आगे करके समवसरण में बैठी और उसके पीछे स्थित होकर पर्युपासना करने लगी।
तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर ने उदयन राजा, मृगावती देवी, जयन्ती श्रमणोपासिका और उस महती महापरिषद् को यावत् धर्मोपदेश दिया, यावत् परिषद् लौट गई, उदयन राजा और मृगावती रानी भी चले गए।
[५३६] वह जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमण भगवान् महावीर से धर्मोपदेश श्रवण कर एवं अवधारण करके हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । फिर भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके पूछाभगवन् ! जीव किस कारण से शीघ्र गुरुत्व को प्राप्त होते हैं ? जयन्ती ! जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों के सेवन से शीघ्रगुरुत्व को प्राप्त होते हैं, (इत्यादि) प्रथमशतक अनुसार, यावत् संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं ।
भगवन् ! जीवों का भवसिद्धिकत्व स्वाभाविक है या पारिणामिक है ? जयन्ती ! वह स्वाभाविक है, पारिणामिक नहीं । भगवन् ! क्या सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे? हाँ, जयन्ती ! हो जाएँगे । भगवन् ! यदि सभी भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएँगे, तो क्या लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित हो जाएगा ? जयन्ती ! यह अर्थ शक्य नहीं है । भगवन् ! किस