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भगवती-११/-/११/५२१
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करो, सफाई करो और लीप-पोत कर शुद्धि (यावत्) करो-कराओ । तत्पश्चात् यूप सहस्त्र और चक्रसहस्त्र की पूजा, महामहिमा और सत्कारपूर्वक उत्सव करो । मेरे इस आदेशानुसार कार्य करके मुझे पुनः निवेदन करो ।' तदनन्तर बल राजा के उपर्युक्त आदेशानुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार कार्य हो जाने का निवेदन किया ।
। तत्पश्चात् बल राजा व्यायामशाला में गये । व्यायाम किया, इत्यादि वर्णन पूर्ववत्, यावत् बल राजा स्नानगृह से निकले । प्रजा से शुल्क तथा कर लेना बन्द कर दिया, भूमि के कर्षण-जोतने का निषेध कर दिया, क्रय, विक्रय का निषेध कर देने से किसी को कुछ मूल्य देना, या नाप-तौल करना न रहा । कुटुम्बिकों के घरों में सुभटों का प्रवेश बन्द कर दिया । राजदण्ड से प्राप्य दण्ड द्रव्य तथा अपराधियों को दिये गए कुदण्ड से प्राप्य द्रव्य लेने का निषेध कर दिया । किसी को ऋणी न रहने दिया जाए । इसके अतिरिक्त प्रधान गणिकाओं तथा नाटकसम्बन्धी पात्रों से युक्त था । अनेक प्रकार के तालानुचरों द्वारा निरन्तर करताल आदि तथा वादकों द्वारा मृदंग उन्मुक्त रूप से बजाए जा रहे थे । बिना कुम्हलाई हुई पुष्पमालाओं उसमें आमोद-प्रमोद और खेलकूद करने वाले अनेक लोग भी थे । इस प्रकार दस दिनों तक राजा द्वारा पुत्रजन्म महोत्सव प्रक्रिया होती रही । इन दस दिनों की पुत्रजन्म संबंधी महोत्सव-प्रक्रिया जब प्रवृत्त हो रही थी, तब बल राजा सैकड़ों, हजारों और लाखों रुपयों के खर्च वाले याग-कार्य करता रहा तथा दान और भाग देता और दिलवाता हुआ एवं सैकड़ों, हजारों और लाखों रुपयों के लाभ देता और स्वीकारता रहा ।
तदनन्तर उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन कुल मर्यादा अनुसार प्रक्रिया की । तीसरे दिन (बालक को) चन्द्र-सूर्य-दर्शन की क्रिया की । छठे दिन जागरिका की । ग्यारह दिन व्यतीत होने पर अशुचि जातककर्म से निवृत्ति की । बारहवाँ दिन आने पर विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम तैयार कराया । फिर शिव राजा के समान यावत् समस्त क्षत्रियों यावत् ज्ञातिजनों को आमंत्रित किया और भोजन कराया । इसके पश्चात् स्नान एवं बलिकर्म किए हुए राजा ने उन सब मित्र, ज्ञातिजन आदि का सत्कारसम्मान किया और फिर उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन यावत् राजा और क्षत्रियों के समक्ष अपने पितामह, प्रपितामह एवं पिता के प्रपितामह आदि से चले आते हुए, अनेक पुरुषों की परम्परा से रूढ़, कुल के अनुरूप, कुल के सदृश कुलरूप सन्तानतन्तु की वृद्धि करने वाला, गुणयुक्त एवं गुणनिष्पन्न ऐसा नामकरण करते हुए कहा-चूं कि हमारा यह बालक बल राजा का पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज है, इसलिए हमारे इस बालक का 'महाबल' नाम हो । अतएव उसका नाम 'महाबल' रखा ।
तदनन्तर उस बालक महाबल कुमार का-१. क्षीरधात्री, २. मज्जनधात्री, ३. मण्डनधात्री, ४. क्रीड़नधात्री और ५. अंकधात्री, इन पांच धात्रियों द्वारा राजप्रश्नीयसूत्र में वर्णित दृढप्रतिज्ञ कुमार के समान लालन-पालन होने लगा यावत् वह महाबल कुमार वायु और व्याघात से रहित स्थान में रही हुई चम्पकलता के समान अत्यन्त सुखपूर्वक बढ़ने लगा । साथ ही, महाबल कुमार के माता-पिता ने अपनी कुलमर्यादा की परम्परा के अनुसार क्रमशः चन्द्र-सूर्य-दर्शन, जागरण, नामकरण, घुटनों के बल चलना, पैरों से चलना, अन्नप्राशन, ग्रासवर्द्धन, संभाषण, कर्णवेधन, संवत्सरप्रतिलेखन, नक्खत्तः शिखा रखवाना और उपनयन संस्कार करना, इत्यादि तथा अन्य बहुत-से गर्भाधान, जन्म-महोत्सव आदि कौतुक किये ।