________________
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
देवानुप्रिये ! तुमने भी इन चौदह महास्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है । हे देवी ! सचमुच तुमने एक उदार स्वप्न देखा है, जिसके फलस्वरूप तुम यावत् एक पुत्र को जन्म दोगी, यावत् जो या तो राज्याधिपति राजा होगा, अथवा भावितात्मा अनगार होगा । देवानुप्रिये ! तुमने एक उदार यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है; इस प्रकार इष्ट, कान्त, प्रिय यावत् मधुर वचनों से उसी बात को दो-तीन बार कह कर उसकी प्रसन्नता में वृद्धि की ।
तब बल राजा से उपर्युक्त अर्थ सुन कर एवं उस पर विचार करके प्रभावती देवी हर्षित एवं सन्तुष्ट हुई । यावत् हाथ जोड़ कर बोली-देवानुप्रिय ! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही यह है। यावत् इस प्रकार कह कर उसने स्वप्न के अर्थ को भलीभांति स्वीकार किया और बल राजा की अनुमति प्राप्त होने पर वह अनेक प्रकार के मणिरत्नों की कारीगरी से निर्मित उस भद्रासन से यावत् उठी; शीघ्रता तथा चपलता से रहित यावत् हंसगति से जहाँ अपना भवन था, वहाँ आ कर अपने भवन में प्रविष्ट हुई । तदनन्तर प्रभावती देवी ने स्नान किया, शान्तिकर्म किया और फिर समस्त अलंकारों से विभूषित हुई । वह अपने गर्भ का पालन करने लगी । अब उस गर्भ का पालन करने के लिए वह न तो अत्यन्त शीतल और न अत्यन्त उष्ण, न अत्यन्त तिक्त और न अत्यन्त कडुए, न अत्यन्त कसैले, न अत्यन्त खट्टे और न अत्यन्त मीठे पदार्थ खाती थी परन्तु ऋतु के योग्य सुखकारक भोजन आच्छादन, गन्ध एवं माला का सेवन करके गर्भ का पालन करती थी । वह गर्भ के लिए जो भी हित, परिमित, पथ्य तथा गर्भपोषक पदार्थ होता, उसे ग्रहण करती तथा उस देश और काल के अनुसार आहार करती थी तथा जब वह दोषों से रहित मूदु शय्या एवं आसनों से एकान्त शुभ या सुखद मनोनुकूल विहारभूमि में थी, तब प्रशस्त दोहद उत्पन्न हुए, वे पूर्ण हुए । उन दोहदों को सम्मानित किया गया । वे दोहद समाप्त हुए, सम्पन्न हुए। वह रोग, शोक, मोह, भय, परित्रास आदि से रहित होकर उस गर्भ को सुखपूर्ववक वहन करने लगी।
_इसके पश्चात् नौ महीने और साढ़े सात दिन परिपूर्ण होने पर प्रभावती देवी ने, सुकुमाल हाथ और पैर वाले, हीन अंगों से रहित, पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाले तथा लक्षणव्यञ्जन
और गुणों से युक्त यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाले, कान्त, प्रियदर्शन एवं सुरूप पुत्र को जन्म दिया । पुत्र जन्म होने पर प्रभावती देवी की अंगपरिचारिकाएँ प्रभावती देवी को प्रसूता जान कर बल राजा के पास आई, और हाथ जोड़कर उन्हें जय-विजय शब्दों से बधाया । फिर निवेदन किया हे देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने नौ महीने और साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर यावत् सुरूप बालक को जन्म दिया है । अतः देवानुप्रिय की प्रीति के लिए हम यह प्रिय समाचार निवेदन करती हैं । यह आपके लिए प्रिय हो । यह प्रिय समाचार सुन कर एवं हृदय में धारण कर बल राजा हर्षित एवं सन्तुष्ट हुआ; यावत् मेघ की धारा से सिंचित कदम्बपुष्प के समान उसके रोमकूप विकसित हो गए । बल राजा ने अपने मुकुट को छोड़ कर धारण किये हुए शेष सभी आभरण उन अंगपरिचारिकाओं को दे दिये । फिर सफेद चांदी का निर्मल जल से भरा हुआ कलश लेकर उन दासियों का मस्तक धोया । उनका सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विदा किया ।
[५२१] इसके पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन अर्थात्-बन्दियों का विमोचन करो, और मान तथा उन्मान में वृद्धि करो । फिर हस्तिनापुर नगर के बाहर और भीतर छिड़काव