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________________ ३०४ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद गौतम ! पूर्ववत् समझना । इसी प्रकार सभी स्थानों में अनाकारोपयुक्त पर्यन्त जानना । इन सभी पदों में यही वक्तव्यता कहना । भगवन् ! क्या नैरयिक पापकर्म भोगने का प्रारम्भ एक साथ करते हैं और उसका अन्त भी एक साथ करते हैं ? गौतम ! (पूर्वोक्त चतुर्भंगी का) कथन सामान्य जीवों के समान अनाकारोपयुक्त तक नैरयिकों के सम्बन्ध में जानना । इसी प्रकार वैमानिकों तक जिसमें जो बोल हों, उन्हें इसी क्रम से कहना चाहिए । पापकर्म के दण्डक समान इसी क्रम से सामान्य जीव से लेकर वैमानिकों तक आठों कर्म-प्रकृतियों के सम्बन्ध में आठ दण्डक कहने चाहिए । इस रीति से नौ दण्डकसहित यह प्रथम उद्देशक कहना चाहिए 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । । शतक - २९ उद्देशक - २ [९९६] भगवन् ! क्या अनन्तरोपपन्नक नैरयिक एक काल में पापकर्म वेदन करते हैं तथा एक साथ ही उसका अन्त करते हैं ? गौतम ! कई पापकर्म को एक साथ भोगते हैं र एक साथ अन्त करते हैं तथा कितने ही एक साथ पापकर्म को भोगते हैं, किन्तु उसका अन्त विभिन्न समय में करते हैं । भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि कई... एक साथ भोगते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? गौतम ! अनन्तरोपपन्नक नैरयिक दो प्रकार के हैं । यथा- कई समकाल के आयुष्य वाले और समकाल में ही उत्पन्न होते हैं तथा कतिपय समकाल के आयुष्य वाले, किन्तु पृथक्-पृथक् काल के उत्पन्न हुए होते हैं । उनमें से जो समकाल के आयुष्यवाले होते हैं तथा एक साथ उत्पन्न होते हैं, वे एक काल में पापकर्म के वेदन का प्रारम्भ करते हैं तथा उसका अन्त भी एक काल में करते हैं र जो समकाल के आयुष्य वाले होते हैं, किन्तु भिन्नभिन्न समय में उत्पन्न होते हैं, वे पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ तो एक साथ करते हैं, किन्तु उसका अन्त पृथक्-पृथक् काल में करते हैं, इस कारण से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है । भगवन् ! क्या लेश्या वाले अनन्तरोपपन्नक नैरयिक पापकर्म को भोगने का प्रारम्भ एक काल में करते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् समझना । इसी प्रकार अनाकारोपयुक्त तक समझना । असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक भी इसी प्रकार कहना । विशेष यह है कि जिसमें जो बोल पाया जाता हो, वही कहना । इसी प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म से अन्तरायकर्म के सम्बन्ध में भी दण्ड कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक - २९ उद्देशक - ३ से ११ [९९७] बन्धीशतक में उद्देशकों की जो परिपाटी कही है, यहाँ भी इस पाठ से समग्र उद्देशकों की वह परिपाटी यावत् अचरमोद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए । अनन्तर सम्बन्धी चार उद्देशकों की एक वक्तव्यता और शेष सात उद्देशकों की एक वक्तव्यता कहना । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक - २९ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण ५/२ भगवती - अङ्गसूत्र- ५ २ - हिन्दी अनुवाद पूर्ण भाग - ४ हिन्दी अनुवाद पूर्ण
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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