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भगवती-२४/-/१/८४२
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नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में पूर्वोक्त वही वक्तव्यता जाननी चाहिए । विशेष यह है कि उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट भी रलिपृथक्त्व होती है । उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी होता है । शेष सब कथन औधिक गमक के समान जानना । संवेध भी उपयोगपूर्वक समझ लेना चाहिए । यदि वह मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में विशेषता इस प्रकार है-उनके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की होती है । उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की होती है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी समझना । शेष सब प्रथम गमक के समान है । विशेषता यह है कि नैरयिक की स्थिति और कायसंवेध तदनुकूल जानना चाहिए ।
इसी प्रकार छठी नरकपृथ्वी पर्यन्त जानना चाहिए । परन्तु विशेष यह है कि तीसरी नरकपृथ्वी से लेकर आगे तिर्यञ्चयोनिक के समान एक-एक संहनन कम होता है । कालादेश भी इसी प्रकार कहना । परन्तु विशेष यह है कि यहाँ मनुष्यों की स्थिति जाननी चाहिए । ___भगवन् ! पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्क-संज्ञी मनुष्य, जो सप्तमपृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जघन्य बाईस सागरोपम की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वालोमें । भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? पूर्ववत् शर्कराप्रभापृथ्वी के गमक के समान समझना । विशेष यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में प्रथम संहनन वाले ही उत्पन्न होते हैं । वहाँ स्त्रीवेदी उत्पन्न नहीं होते । शेष कथन अनुबन्ध तक पूर्ववत् । भव की अपेक्षा सेदो भव ग्रहण और काल की अपेक्षा से जघन्य वर्षपृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम । यदि वही मनुष्य, जघन्य काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी-नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता । विशेष यह है कि यहाँ नैरयिक की स्थिति और संवेध स्वयं विचार करके कहना । यदि वही मनुष्य, उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो भी यही वक्तव्यता । विशेष यह है कि इसका संवेध स्वयं जान लेना।
यदि वही स्वयं जघन्यकाल की स्थिति वाला हो और सप्तमपृथ्वी के नारकों में उत्पन्न हो, तो तीनों गमकों में यही वक्तव्यता समझनी चाहिए । विशेष यह है कि उसके शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रत्निपृथक्त्व होती है । उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट वर्षपृथक्त्व की होती है । अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है । संवेध के विषय में उपयोग पूर्वक कहना चाहिए । यदि वह संज्ञी मनुष्य स्वयं उत्कृष्ट स्थिति वाला हो और सप्तम नरकपृथ्वी में उत्पन्न हो, तो उसके भी तीनों गमकों में पूर्वोक्त वक्तव्यता समझना । विशेष इतना ही है कि शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है । स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट भी पूर्वकोटिवर्ष की है । इसी प्रकार अनुबन्ध भी जानना । इन नौ ही गमकों में नैरयिकों की स्थिति और संवेध स्वयं विचार कर जान लेना । यावत् नौवें गमक तक दो ही भवग्रहण होता है; काल की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम; इतना काल सेवन करता है, गमनागमन करता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
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