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भगवती - २१/१/१/८०७
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इसी प्रकार (कर्मों के) वेदन, उदय और उदीरणा के विषय में भी (जानना) भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी या कापोतलेश्यी होते हैं ? गौतम ! छब्बीस भंग कहना । दृष्टि से लेकर यावत् इन्द्रियों के विषय में उत्पलोद्देशक के अनुसार है ।
भगवन् ! शालि, व्रीहि, गेहूं, यावत् जौ, जवजव आदि, के मूल का जीव कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल रहता है । भगवन् ! शालि, व्रीहि, गोधूम, जौ, ( यावत्) जवजव के मूल का जीव, यदि पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न हो और फिर पुनःशालि, व्रीहि यावत् जौ, जवजव आदि धान्यों के मूल रूप में उत्पन्न हो, तो इस रूप में वह कितने काल तक रहता है ? तथा कितने काल तक गति
गति करता रहता है ? हे गौतम ! उत्पल उद्देशक के अनुसार है । इस अभिलाप से मनुष्य एवं सामान्य जीव तक कहना चाहिए । आहार ( सम्बन्धी निरूपण) भी उत्पलोद्देशक के समान है । (इन जीवों की) स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट वर्ष- पृथक्त्व की है । समुद्घात - समवहत और उद्वर्त्तना उत्पलोद्देशक के अनुसार है ।
भगवन् ! क्या सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सर्व सत्त्व शालि, व्रीहि, यावत् जवजव के मूल के जीव रूप में इससे पूर्व उत्पन्न हो चुके हैं ? हां, गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्त बार ( उत्पन्न हो चुके हैं) । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - २१ वर्ग-१ उद्देशक - २ से १०
[८०८] भगवन् ! शालि, व्रीहि, यावत् जवजव, इन सबके 'कन्द' रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? ( गौतम !) 'कन्द' के विषय में, वही मूल का समग्र उद्देशक, कहना चाहिए । भगवन् ! यह इसी प्रकार है' ।
[८०९] इसी प्रकार स्कन्ध का उद्देशक भी कहना चाहिए । [८१०] इसी प्रकार 'त्वचा' का उद्देशक भी कहना चाहिए । [८११] शाखा के विषय में भी ( पूर्ववत् ) कहना चाहिए । [८१२] प्रवाल के विषय में भी ( पूर्ववत् ) कहना चाहिए ।
[८१३] पत्र के विषय में भी ( पूर्ववत् ) कहना चाहिए । ये सातों ही उद्देशक समग्ररूप से 'मूल' उद्देशक के समान जानने चाहिए ।
[८१४] 'पुष्प' के विषय में भी (पूर्ववत् ) उद्देशक कहना चाहिए । विशेष यह है कि 'पुष्प' के रूप में देव उत्पन्न होता है । उत्पलोद्देशक में जिस प्रकार चार लेश्याएँ और उनके अस्सी भंग कहे गए हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए । इसकी अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अंगुल - पृथक्त्व की होती है । 'पुष्प' के अनुसार 'फल' के विषय में भी समग्र उद्देशक कहना । 'बीज' के विषय में भी इसी प्रकार कहना । इस प्रकार दस उद्देशक पूर्ण हुए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है' ।
शतक - २१ वर्ग - २
[८१५] भगवन् ! कलाय, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, निष्पाव, कुलथ, आलिसंदक, सटिन और पलिमंथक; इन सबके मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आ