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भगवती-२०/-/८/७९४
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तीर्थंकर हुए हैं ? गौतम ! चौवीस । यथा-कृषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, सुप्रभ, सुपार्श्व, शशी, पुष्पदन्न, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि. मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्द्धमान ।
[७९५] भगवन् ! इन चौवीस तीर्थंकरों के कितने जिनानन्तर कहे हैं ? गौतम ! इनके तेईस अन्तर कहे गए हैं । भगवन् ! इन तेईस जिनान्तरो में किस जिन के अन्तर में कब कालिकश्रुत का विच्छेद कहा गया है ? गौतम ! पहले और पीछे के आठ-आठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का अव्यवच्छेद कहा गया है और मध्य के आठ जिनान्तरों में कालिकश्रुत का व्यवच्छेद कहा गया है; किन्तु दृष्टिवाद का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ है ।
[७९६] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इस अवसर्पिणीकाल में आप देवानुप्रिय का पूर्वगतश्रुत कितने काल तक रहेगा ? गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में मेरा पूर्वगतश्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा । भगवन् ! जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में, इस अवसर्पिणीकाल में अवशिष्ट अन्य तीर्थंकरों का पूर्वगतश्रुत कितने काल तक रहा था ? गौतम ! कितने ही तीर्थंकरों का पूर्वगतश्रुत संख्यात काल तक रहा और कितने ही तीर्थंकरों का असंख्यात काल तक रहा ।
[७९७] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में आप देवानुप्रिय का तीर्थ कितने काल तक रहेगा ? गौतम ! इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा ।
[७९८] हे भगवन् ! भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ कितने काल तक अविच्छिन्न रहेगा ? गौतम ! कौशलिक कृषभदेव, अरहन्त का जितना जिनपर्याय है, उतने वर्ष तक भावी तीर्थंकरों में से अन्तिम तीर्थंकर का तीर्थ रहेगा ।
[७९९] भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं अथवा तीर्थंकर को तीर्थ कहते हैं ? गौतम ! अर्हन् तो अवश्य तीर्थंकर हैं, किन्तु तीर्थ चार प्रकार के वर्णों से युक्त श्रमणसंघ है । यथा-श्रमण, श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएँ ।
[८००] भगवन् ! प्रवचन को ही प्रवचन कहते हैं, अथवा प्रवचनी को प्रवचन कहते हैं ? गौतम ! अरिहन्त तो अवश्य प्रवचनी हैं, किन्तु द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन हैं, यथा
आचारांग यावत् दृष्टिवाद । भगवन् ! जो ये उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कौरव्यकुल हैं, वे यावत् सर्वदुःखों का अन्त करते हैं ? हाँ गौतम ! करते हैं; अथवा कितने ही किन्ही देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं ।
भगवन् ! देवलोक कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! चार प्रकार के हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-२० उद्देशक-९ | [८०१] भगवन् ! चारण कितने प्रकार के कहे हैं ? गौतम ! दो प्रकार के, यथाविद्याचारण और जंघाचारण । भगवन् ! विद्याचारण मुनि को 'विद्याचारण' क्यों कहते हैं ?
अन्तर-रहित छट्ठ-छ? के तपश्चरणपूर्वक पूर्वश्रुतरूप विद्या द्वारा तपोलब्धि को प्राप्त मुनि को विद्याचारणलब्धि नाम की लब्धि उत्पन्न होती है । इस कारण से यावत् वे विद्याचारण कहलाते हैं । भगवन् ! विद्याचारण की शीघ्र गति कैसी होती है ? और उसका गति-विषय कितना