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भगवती-२०/-/२/७८१
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से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक यहाँ कहना चाहिए भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितना बड़ा है ? गौतम ! धर्मास्तिकाय लोक, लोकमात्र, लोक-प्रमाण, लोक-स्पृष्ट और लोक को अवगाढ करके रहा हुआ है, इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय तक कहना चाहिए ।
भगवन् ! अधोलोक, धर्मास्तिकाय के कितने भाग को अवगाढ़ करके रहा हुआ है ? गौतम ! वह कुछ अधिक अर्द्ध भाग को अवगाढ कर रहा हुआ है । दूसरे शतक के दशवें उद्देशक अनुसार जानना । यावत्-भगवन् ! ईषत्प्राग्भारापृथ्वी लोकाकाश के संख्यातवें भाग को अवगाहित करके रही हुई है अथवा असंख्यातवें भाग को ? गौतम ! वह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग को अवगाहित की हुई है, (वह लोक के) संख्यात भागों को अथवा असंख्यात भागों को भी व्याप्त करके स्थित नहीं है और न समग्र लोक को व्याप्त करके ।
[७८२] भगवन् ! धर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथाधर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, यावत् परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध-विवेक, यावत्मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, अथवा ईर्यासमिति, यावत् उच्चार-प्रस्त्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिकासमिति, अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं, वे धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं । भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथा-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ईयासम्बन्धी असमिति, यावत् परिष्ठापनिकासम्बन्धी असमिति; अथवा मन-अगुप्ति, यावत् काय-अगुप्ति; ये सब और इसी प्रकार के जो अन्य शब्द हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं ।
भगवन् ! आकाशास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथाआकाश, आकाशास्तिकाय, अथवा गगन, नभ, अथवा सम, विषम, खह, विहायस्, वीचि, विवर, अम्बर, अम्बरस, छिद्र, शुषिर, मार्ग, विमुख, अर्द, व्यर्द, आधार, व्योम, भाजन, अन्तरिक्ष, श्याम, अवकाशान्तर, अगम, स्फटिक और अनन्त; ये सब तथा इनके समान सभी अभिवचन आकाशास्तिकाय के हैं । भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने अभिवचन हैं ? गौतम ! अनेक । यथा-जीव, जीवास्तिकाय, या प्राण, भूत, सत्त्व, अथवा विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, रंगण, हिण्डुक, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, जगत्, जन्तु, योनि, स्वयम्भू, सशरीरी, नायक एवं अन्तरात्मा, ये सब और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन जीव के हैं ।
भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के कितने अभिवचन है ? गौतम ! अनेक । यथा-पुद्गल, पुद्गलास्तिकाय, परमाणु-पुद्गल, अथवा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी यावत् असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशीस्कन्ध; ये और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन पुद्गल के हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । यह इसी प्रकार है ।
| शतक-२० उद्देशक-३ | [७८३] भगवन् ! प्राणातिपात, मृषावाद यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, औत्पत्तिकी यावत् पारिणामिकी बुद्धि, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम; नैरयिकत्व, असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, चक्षुदर्शन यावत् केवलदर्शन,