SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद मिथ्याभाव को अपना लेगा । वह कई श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करेगा, किन्हीं का उपहास करेगा, कतिपय साधुओं को एक दूसरे से पृथक्-पृथक् कर देगा, कइयों की भर्त्सना करेगा । बांधेगा, निरोध करेगा, अंगच्छेदन करेगा, मारेगा, उपद्रव करेगा, श्रमणों के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादपोंछन को छिन्नभिन्न कर देगा, नष्ट कर देगा, चीर-फाड़ देगा या अपहरण कर लेगा । आहार-पानी का विच्छेद करेगा और कई श्रमणों को नगर और देश के निर्वासित करेगा । शतद्वारनगर के बहुत-से राजा, ऐश्वर्यशाली यावत् सार्थवाह आदि परस्पर यावत् कहने लगेंगे-देवानुप्रियो ! विमलवाहन राजा ने श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यपन अपना लिया है, यावत् कितने ही श्रमणों को इसने देश से निर्वासित कर दिया है, इत्यादि । अतः देवानुप्रियो ! यह हमारे लिए श्रेयस्कर नहीं है । यह न विमलवाहन राजा के लिए श्रेयस्कर है और न राज्य, राष्ट्र, बल वाहन, पुर, अन्तःपुर अथवा जनपद के लिए श्रेयस्कर है कि विमलवाहन राजा श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व को अंगीकार करे । अतः देवानुप्रियो ! हमारे लिए यह उचित है कि हम विमलवाहन राजा को इस विषय में विनयपूर्वक निवेदन करें । इस प्रकार वे विमलवाहन राजा के पास आएँगे । करबद्ध होकर विमलवाहन राजा को जय-विजय शब्दों से बधाई देंगे । फिर कहेंगे-हे देवानुप्रिय ! श्रमणनिर्ग्रन्थों के प्रति आपने अनार्यत्व अपनाया है; कइयों पर आप आक्रोश करते हैं, यावत् कई श्रमणों को आप देश-निर्वासित करते हैं । अतः हे देवानुप्रिय ! यह आपके लिए श्रेयस्कर नहीं है, न हमारे लिए यह श्रेयस्कर है यावत् आप देवानुप्रिय श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति अनार्यत्व स्वीकार करें । अतः हे देवानुप्रिय ! आप इस अकार्य को करने से रुकें । तदनन्तर इस प्रकार जब वे राजेश्वर यावत् सार्थवाह आदि विनयपूर्वक राजा विमलवाहन से विनति करेंगे, तब वह राजा-धर्म (कुछ) नहीं, तप निरर्थक है, इस प्रकार की बुद्धि होते हुए भी मिथ्या-विनय बता कर उनकी इस विनति को मान लेगा । उस शतद्वारनगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में सुभूमि भाग नाम का उद्यान होगा, जो सब ऋतुओं में फल-पुष्पों से समृद्ध होगा, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उस काल उस समय में विमल नामक तीर्थंकर के प्रपौत्र-शिष्य 'सुमंगल' होंगे । उनका वर्णन धर्मघोष अनगार के समान, यावत् संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या वाले, तीन ज्ञानों से युक्त वह सुमंगल नामक अनगार, सुभूमिभाग उद्यान से न अति दूर और न अति निकट निरन्तर छठ-छठ तप के साथ यावत् आतापना लेते हुए विचरेंगे । वह विमलवाहन राजा किसी दिन रथचर्या करने के लिए निकलेगा । जब सुभूमिभाग उद्यान से थोड़ी दूर स्थचर्या करता हुआ वह विमलवाहत राजा, निरन्तर छठ-छठ तप के साथ आतापना लेते हुए सुमंगल अनगार को देखेगा; तब उन्हें देखते ही वह एकदम क्रुद्ध होकर यावत् मिसमिसायमान होता हुआ रथ के अग्रभाग से सुमंगल अनगार को टक्कर मार कर नीचे गिरा देगा । विमलवाहन राजा द्वारा रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर सुमंगल अनगार को नीचे गिरा देने पर वह धीरे-धीरे उठेंगे और दूसरी बार फिर बाहें ऊँची करके यावत् आतापना लेते हए विचरेंगे । तब वह विमलवाहन राजा फिर दूसरी बार रथ के अग्रभाग से टक्कर मार कर नीचे गिरा देगा, अतः सुमंगल अनगार फिर दूसरी बार शनैः शनैः उठेगे और अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर विमलवाहन राजा के अतीत काल को देखेंगे । फिर वह कहेंगे-'तुम वास्तव में विमलवाहन राजा नहीं हो, तुम देवसेन राजा भी नहीं हो, और न ही तुम महापद्म राजा हो; किन्तु तुम इससे पूर्व तीसरे भव में श्रमणों के घातक गोशालक नामक मंखलिपुत्र थे, यावत् तुम छद्मस्थ अवस्था
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy