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भगवती-३/-/१/१५२
'हे गौतम ! विकुर्वण करने के लिए असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और यावत् दूसरी बार भी वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है । जैसे कोई युवा पुरुष अपने हाथ से युवती स्त्री के हाथ को पकड़ता है, तो वे दोनों दृढता से संलग्न मालूम होते हैं, अथवा जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी आरों से सुसम्बद्ध होती है, इसी प्रकार असुरेन्द्र असुरराज चमर का प्रत्येक सामानिक देव इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों द्वारा आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है । इसके उपरान्त हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर का एक-एक सामानिक देव, इस तिर्यग्लोक के असंख्य द्वीपों और समुद्रों तक के स्थल को बहुत-से असुरकुमार देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तीर्ण, संस्तीर्ण, स्पृष्ट और गाढ़ावगाढ़ कर सकता है । हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रत्येक सामानिक देव में विकुर्वण करने की शक्ति है, वह विषयरूप है, विषयमात्र-शक्तिमात्र है, परन्तु प्रयोग करके उसने न तो कभी विकुर्वण किया है, न ही करता है और न ही करेगा ।
[१५३] भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर के सामानिक देव यदि इस प्रकार की महती कृद्धि से सम्पन्न हैं, यावत् इतना विकुर्वण करने में समर्थ हैं, तो हे भगवन् ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के त्रायस्त्रिंशक देव कितनी बड़ी कृद्धि वाले हैं ? (हे गौतम !) जैसा सामानिक देवों के विषय में कहा था, वैसा ही त्रायस्त्रिंशक देवों के विषय में कहना चाहिए । लोकपालों के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिए । किन्तु इतना विशेष कहना चाहिए कि लोकपाल संख्येय द्वीप समुद्रों को व्याप्त कर सकते हैं ।
भगवन् ! जब असुरेन्द्र असुरराज चमर के लोकपाल ऐसी महाऋद्धि वाले हैं, तब असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषियाँ कितनी बड़ी कृद्धि वाली हैं, यावत् वे कितना विकर्वण करने में समर्थ हैं ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की अग्रमहिषी-देवियाँ महाकृद्धिसम्पन्न हैं, यावत् महाप्रभावशालिनी हैं । वे अपने-अपने भवनों पर, अपने-अपने एक हजार सामानिक देवों पर, अपनी-अपनी महत्तरिका देवियों पर और अपनी-अपनी परिषदाओं पर आधिपत्य करती हुई विचरती हैं; यावत् वे अग्रमहिषियाँ ऐसी महाकृद्धिवाली हैं । शेष सब वर्णन लोकपालों के समान । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
_[१५४] द्वितीय गौतम (गोत्रीय) अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार करके जहाँ तृतीय गौतम (-गोत्रीय) वायुभूति अनगार थे, वहाँ आए । उनके निकट पहुँचकर वे, तृतीय गौतम वायुभूति अनगार से यों बोले हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी महाऋद्धि वाला है, इत्यादि समग्र वर्णन अपृष्ट व्याकरण (प्रश्न पूछे बिना ही उत्तर) के रूप में यहाँ कहना चाहिए । तदनन्तर अग्निभूति अनगार द्वारा कथित, भाषित, प्रज्ञापित और प्ररूपित उपर्युक्त बात पर तृतीय गौतम वायुभूति अनगार को श्रद्धा नहीं हुई, प्रतीति न हुई, न ही उन्हें रुचिकर लगी । अतः उक्त बात पर श्रद्धा, प्रतीति
और रुचि न करते हुए वे तृतीय गौतम वायुभूति अनगार उत्थान द्वारा उठे और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए और यावत् उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भगवन् ! द्वितीय गौतम अग्निभूति अनगार ने मुझ से इस प्रकार कहा, इस प्रकार भाषण किया, इस प्रकार बतलाया और प्ररूपित किया कि 'असुरेन्द्र असुरराज चमर ऐसी बड़ी