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भगवती-२/-/५/१३७
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वृक्षसमूह से सुशोभित है, वह सुन्दर है, यावत् प्रतिरूप है । उस हद में अनेक उदार मेघ संस्वेदित (उत्पन्न) होते (गिरते) हैं, सम्मूर्छित होते (बरसते) हैं । इसके अतिरिक्त उसमें से सदा परिमित गर्म-गर्म जल झरता रहता है ।' भगवन् ! (अन्यतीर्थिकों का) इस प्रकार का कथन कैसा है ? हे गौतम ! अन्यतीर्थिक जो कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, और प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर के बाहर...यावत्...गर्म-गर्म जल झरता रहता है, यह सब वे मिथ्या कहते हैं; किन्तु हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, भाषण करता हूँ, बतलाता हूँ और प्ररूपणा करता हूँ, कि राजगृह नगर के बाहर वैभारगिरि के निकटवर्ती एक महातपोपतीर-प्रभव नामक झरना है । वह लम्बाई-चौड़ाई में पांच-सौ धनुष है । उसके आगे का भाग अनेक प्रकार के वृक्ष-समूह से सुशोभित है, सुन्दर है, प्रसन्नताजनक है दर्शनीय है, रमणीय है और प्रतिरूप है । उस झरने में बहुत-से उष्णयोनिक जीव और पुद्गल जल के रूप में उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, च्यवते हैं और उपचय को प्राप्त होते हैं । इसके अतिरिक्त उस झरने में से सदा परिमित गर्म-गर्म जल झरता रहता है । हे गौतम ! यह महातपोपतीर-प्रभव नामक झरना है, और हे गौतम ! यही महातपोपतीरप्रभव नामक झरने का अर्थ है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' ।
| शतक-२ उद्देशक-६ । [१३८] भगवन् ! भाषा अवधारिणी है; क्या मैं ऐसा मान लूँ ? गौतम ! उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के भाषापद जान लेना चाहिए ।
| शतक-१ उद्देशक-७ | [१३९] भगवन् ! देव कितने प्रकार के कहे गए हैं ? गौतम ! देव चार प्रकार के कहे गए हैं । वे इस प्रकार हैं-भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ।
भगवन् ! भवनवासी देवों के स्थान कहाँ पर कहे गए हैं ? गौतम ! भवनवासी देवों के स्थान इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे हैं; इत्यादि देवों की सारी वक्तव्यता प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थान-पद में कहे अनुसार कहनी चाहिए । किन्तु विशेषता इतनी है कि यहाँ भवनवासियों के भवन कहने चाहिए । उनका उपपात लोक के असंख्यातवें भाग में होता है । यह समग्र वर्णन सिद्ध सिद्धगण्डिकापर्यन्त पूरा कहना चाहिए । कल्पों का प्रतिष्ठान उनकी मोटाई, ऊँचाई और संस्थान आदि का सारा वर्णन जीवाभिगमसूत्र के वैमानिक उद्देशक पर्यन्त कहना ।
| शतक-२ उद्देशक-८ [१४०] भगवन् ! असुरकुमारों के इन्द्र और अनेक राजा चमर की सुधर्मा-सभा कहाँ पर है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित मन्दर (मेरु) पर्वत से दक्षिण दिशा में तिरछे असंख्य द्वीपों और समुद्रों को लांघने के बाद अरुणवर द्वीप आता है । उस द्वीप की वेदिका के बाहिरी किनारे से आगे बढ़ने पर अरुणोदय नामक समुद्र आता है । इस अरुणोदय समुद्र में बयालीस लाख योजन जाने के बाद उस स्थान में असुरकुमारों के इन्द्र, असुरकुमारों के राजा चमर का तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत है । उसकी ऊँचाई १७२१ योजन है । उसका उद्वेध ४३० योजन और एक कोस है । (अर्थात्-तिगिच्छकूट पर्वत का