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भगवती-२/-/५/१३४
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निरन्तर छट्ठ-छ? के तपश्चरण से तथा संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे ।
इसके पश्चात् छट्ठ के पारणे के दिन भगवान् गौतमस्वामी ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया; द्वितीय प्रहर में ध्यान ध्याया और तृतीय प्रहर में शारीरिक शीघ्रता-रहित, मानसिक चपलतारहित, आकुलता से रहित होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की; फिर पात्रों और वस्त्रों की प्रतिलेखना की; तदनन्तर पात्रों का प्रमार्जन किया और फिर उन पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आए । भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया
और निवेदन किया-'भगवन् ! आज मेरे छ? तप के पारणे का दिन है । अतः आप से आज्ञा प्राप्त होने पर मैं राजगृह नगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचर्या की विधि के अनुसार, भिक्षाटन करना चाहता हूँ ।' हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो, वैसे करो; किन्तु विलम्ब मत करो ।'
भगवान् की आज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद भगवान् गौतमस्वामी श्रमण भगवान् महावीर के पास से तथा गुणशील चैत्य से निकले । फिर वे त्वरा, चपलता और आकुलता से रहित होकर युगान्तर प्रमाण दूर तक की भूमि का अवलोकन करते हुए, अपनी दृष्टि से आगे-आगे के गमन मार्ग का शोधन करते हुए जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ आए । ऊँच, नीच और मध्यम कुलों के गृह-समुदाय में विधिपूर्वक भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करने लगे ।
उस समय राजगृह नगर में भिक्षाटन करते हुए भगवान् गौतम ने बहुत-से लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार सुने-हे देवानुप्रिय ! तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक नामक उद्यान में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासको ने प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है, भगवन् ! तप का क्या फल है ?' तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन श्रमणोपासकों से कहा था-"आर्यो ! संयम का फल संवर है, और तप का फल कर्मों का क्षय है । यावत्-हे आर्यो ! पूर्वतप से, पूर्वसंयम से, कर्म शेष रहने से और संगिता (आसक्ति) से देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । यह बात सत्य है, इसलिए हमने कही है, हमने अपने आत्मभाव वश यह बात नहीं कही है ।' तो मैं यह बात कैसे मान लूँ ?'
इसके पश्चात् श्रमण भगवान् गौतम ने इस प्रकार की बात लोगों के मुख से सुनी तो उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हुई, और यावत् उनके मन में कुतूहल भी जागा । अतः भिक्षाविधिपूर्वक आवश्यकतानुसार भिक्षा लेकर वे राजगृहनगर से बाहर निकले और अत्वरित गति से यावत् ईर्या-शोधन करते हुए जहाँ गुणशीलक चैत्य था, और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए । गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, एषणादोषों की आलोचना की, फिर आहार-पानी भगवान को दिखाया । तत्पश्चात श्रीगौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर से यावत् निवेदन किया-"भगवन् ! मैं आपसे आज्ञा प्राप्त करके राजगृहनगर में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा-चर्या की विधिपूर्वक भिक्षाटन कर रहा था, उस समय बहुतसे लोगों के मुख से इस प्रकार के उद्गार सुने कि तुंगिका नगरी के बाहर पुष्पवतिक नामक उद्यान में पापित्यीय स्थविर भगवन्त पधारे थे, उनसे वहाँ के श्रमणोपासकों ने इस प्रकार के प्रश्न पूछे थे कि 'भगवन् ! संयम का क्या फल है ? और तप का क्या फल है ?' यावत्