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भगवती-२/-/१/११४
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नामक तपश्चरण अंगीकार करके विचरण करना चाहता हूँ ।' भगवान् ने फरमाया-'तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो; धर्मकार्य में विलम्ब न करो ।' स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके यावत् उन्हें वन्दना-नमस्कार करके गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण स्वीकार करके विचरण करने लगे । जैसे कि पहले महीने में निरन्तर उपवास करना, दिन में सूर्य के सम्मुख दृष्टि रखकर आतापनाभूमि में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य की आतापना लेना और रात्रि में अपावृत (निर्वस्त्र) होकर वीरासन से बैठना एवं शीत सहन करना । इसी तरह निरन्तर बेले-बेले पारणा करना । दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख रखकर आतापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना । इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले-तेले पारणा करना । इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले-चौले पारणा करना । पाँचवें मास में पचौले-पचौले पारणा करना । छठे मास में निरन्तर छह-छह उपवास करना । सातवें मास में निरन्तर सात-सात उपवास करना | आठवें मास में निरन्तर आठ-आठ उपवास करना । नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ उपवास करना । दसवें मास में निरन्तर दस-दस उपवास करना | ग्यारहवें मास में निरन्तर ग्यारह-ग्यारह उपवास करना । बारहवें मास में निरन्तर बारहबारह उपवास करना । तेरहवें मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना । निरन्तर चौदहवें मास में चौदह-चौदह उपवास करना | पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह उपवास करा और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना । इन सभी में दिन में उत्कुटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना ।
तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की । इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए
और उन्हें वन्दना-नमस्कार किया । और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचौला, मासखमण, अर्द्ध मासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे । इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त, उत्तम, उदय, उदात्त, सुन्दर, उदार और महाप्रभावशाली तपःकर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो गए, मांसरहित हो गए, वह केवल हड्डी
और चमड़ी से ढका हुआ रह गया । चलते समय हड्डियाँ खड़-खड़ करने लगीं, वे कृश-दुर्बल हो गए, उनकी नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं, अब वे केवल जीव के बल से चलते थे, जीव के बल से खड़े रहते थे, तथा वे इतने दुर्बल हो गए थे कि भाषा बोलने के बाद, भाषा बोलते-बोलते भी और भाषा बोलंगा, इस विचार से भी ग्लानि को प्राप्त होते थे. जैसे कोई सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्ते, तिल और अन्य सूखे सामान से भरी हुई गाड़ी हो, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, या कोयले से भरी हुई गाड़ी हो, सभी गाड़ियाँ धूप में अच्छी तरह सुखाई हुई हों और फिर चलाई जाएँ तो खड़खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती हैं, इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते थे, खड़े रहते थे, तब खड़-खड़ आवाज होती थी । यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गए थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे । उनका मांस और रक्त क्षीण हो गए थे, किन्तु 35