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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
अनुसार श्री स्कन्दकमुनि चलने लगे, वैसे ही खड़े रहने लगे, वैसे ही बैठने, सोने, खाने, बोलने आदि क्रियाएँ करने लगे; तथा तदनुसार ही प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्वक बर्ताव करने लगे । इस विषय में वे जरा-सा भी प्रमाद नहीं करते थे ।
अब वह कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक अनगार हो गए । वह अब ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्त्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति, एवं मनःसमिति, वचनसमिति और कायसमिति, इन आठ समितियों का सम्यक् रूप से सावधानतापूर्वक पालन करने लगे । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति से गुप्त रहने लगे, वे सबको वश में रखने वाले, इन्द्रियों को गुप्त रखने वाले, गुप्तब्रह्मचारी, त्यागी, लज्जावान् धन्य, क्षमावान् जितेन्द्रिय, व्रतों आदि के शुद्धिपूर्वक आचरणकर्ता नियाणा न करने वाले, आकांक्षारहित, उतावल से दूर, संयम से बाहर चित्त न रखने वाले, श्रेष्ठ साधुव्रतों में लीन, दान्त स्कन्दक मुनि इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को सम्मुख रखकर विचरण करने लगे ।
[११४] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कृतंगला नगरी के छत्रपलाशक उद्यान से निकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे ।
इसके बाद स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । शास्त्र अध्ययन करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले-'भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं मासिकी भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरना चाहता हूँ ।' (भगवान्-) हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो । शुभ कार्य में प्रतिबन्ध न करो । तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके अतीव हर्षित हुए और यावत् भगवान् महावीर को नमस्कार करके मासिक भिक्षुप्रतिमा अंगीकार करके विचरण करने लगे । तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने सूत्र के अनुसार, मार्ग के अनुसार, यथातत्त्व, सम्यक् प्रकार से स्वीकृत मासिक भिक्षप्रतिमा का काया से स्पर्श किया, पालन किया, उसे शोभित किया, पार लगाया, पूर्ण किया, उसका कीर्तन किया, अनुपालन किया, और आज्ञापूर्वक आराधन किया ।
उक्त प्रतिमा का काया से सम्यक् स्पर्श करके यावत् उसका आज्ञापूर्वक आराधन करके श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए यावत् वन्दन-नमस्कार करके यों बोले'भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा स्वीकार करके विचरण करना चाहता हूँ ।' इस पर भगवान् ने कहा- 'हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब न करो । तत्पश्चात् स्कन्दक अनगार ने द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा को स्वीकार किया । यावत् सम्यक् प्रकार से आज्ञापूर्वक आराधन किया । इसी प्रकार त्रैमासिकी, चातुर्मासिकी, पंचमासिकी, पाण्मासिकी एवं सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा की यथावत् आराधना की । तत्पश्चात् प्रथम सप्तरात्रि-दिवस की, द्वितीय सप्त रात्रि-दिवस की एवं तृतीय सप्तरात्रिदिवस की फिर एक अहोरात्रि की, तथा एकरात्रि की, इस तरह बारह भिक्षुप्रतिमाओं का सूत्रानुसार यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन किया ।
फिर स्कन्दक अनगार अन्तिम एकरात्रि की भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र यावत् आज्ञापूर्वक सम्यक् आराधन करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आकर उन्हें वन्दनानमस्कार करके यावत् इस प्रकार बोले-'भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं 'गुणरत्नसंवत्सर'