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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
कारण है ? गौतम ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ का जीव, बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास तथा निःश्वास लेता और छोड़ता है, इसलिए उसे 'प्राण' कहना चाहिए । वह भूतकाल में था, वर्तमान में है और भविष्यकाल में रहेगा इसलिए उसे 'भूत' कहना चाहिए । तथा वह जीव होने से जीता है, जीवत्व एवं आयुष्यकर्म का अनुभव करता है, इसलिए उसे 'जीव' कहना चाहिए । वह शुभ और अशुभ कर्मों से सम्बद्ध है, इसलिए उसे 'सत्त्व' कहना चाहिए । वह तिक्त, (तीखा) कटु, कषाय, खट्टा और मीठा, इन रसों का ज्ञाता है, इसलिए उसे 'विज्ञ' कहना चाहिए, तथा वह सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए उसे 'वेद' कहना चाहिए ।
[१११] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध किया है, जिसने संसार के प्रपंच का निरोध किया है, यावत् जिसने अपना कार्य सिद्ध कर लिया है, ऐसा प्रासुकभोजी अनगार क्या फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता? हाँ गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला निर्ग्रन्थ अनगार फिर मनुष्यभव आदि भवों को प्राप्त नहीं होता ।
हे भगवन ! पूर्वोक्त स्वरूपवाले निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए? हे गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाले निर्ग्रन्थ को 'सिद्ध' कहा जा सकता है, 'बुद्ध' कहा जा सकता है, 'मुक्त' कहा जा सकता है, 'पारगत' कहा जा सकता है, ‘परम्परागत' कहा जा सकता है । उसे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत् एवं सर्वदुःखप्रहीण कहा जा सकता है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर भगवान् गौतम स्वामी श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करते हैं और फिर संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करके विचरण करते हैं ।
उस काल और उस समय में (एकदा) श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे ।
[११२] उस काल उस समय में कृतंगला नाम की नगरी थी । उस कृतंगला नगरी के बाहर ईशानकोण में छत्रपलाशक नाम का चैत्य था । वहाँ किसी समय उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे । यावत्-भगवान् का समवसरण हुआ । परिषद् धर्मोपदेश सुनने के लिए निकली ।
___ उस कृतंगला नगरी के निकट श्रावस्ती नगरी थी । उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल नामक पख्रिाजक का शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक नाम का पख्रिाजक रहता था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इन चार वेदों, पांचवें इतिहास, छठे निघण्टु नामक कोश का तथा सांगोपांग रहस्यसहित वेदों का वारक, धारक, पारक, वेद के छह अंगों का वेत्ता था । वह षष्ठितंत्र में विशारद था, वह गणितशास्त्र, शिक्षाकल्पशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, छन्दशास्त्र, निरुक्त शास्त्र और ज्योतिषशास्त्र, इन सब शास्त्रों में, तथा दूसरे बहुत-से ब्राह्मण और पब्रिजकसम्बन्धी नीति और दर्शनशास्त्रों में भी अत्यन्त निष्णात था ।
उसी श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक-पिंगल नामक निर्ग्रन्थ था । एकदा वह वैशालिक श्रावक पिंगल नामक निर्ग्रन्थ किसी दिन जहाँ कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक पब्रिाजक रहता था, वहाँ उसके पास आया और उसने आक्षेपपूर्वक कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक से पूछा'मागध !, १-लोक सान्त है या अनन्त है ?, २-जीव सान्त है या अनन्त है ?, ३-सिद्धि सान्त है या अनन्त है ?, ४-सिद्ध सान्त है या अनन्त है ?, ५-किस मरण से मरता हुआ