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भगवती-२/-/१/१०७
वर्णवाले हैं ? हे गौतम ! जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र के अट्ठाईसवें आहारपद में कथन किया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए । यावत् वे तीन, चार, पाँच दिशाओं की ओर से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । भगवन् ! नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों को बाह्य और आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं ? गौतम ! इस विषय में पूर्वकथनानुसार ही जानना चाहिए और यावत्-वे नियम से छहों दिशा से पुद्गलों को बाह्य एवं आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते और छोड़ते हैं । जीवसामान्य और एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में इस प्रकार कहना चाहिए कि यदि व्याघात न हो तो वे सब दिशाओं से और यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशा से, कदाचित् चार दिशा से, और कदाचित् पांच दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । शेष सब जीव नियम से छह दिशा से श्वासोच्छ्वास के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ।
[१०८] हे भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकायों की ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है ? हाँ, गौतम ! वायुकाय, वायुकायों को ही बाह्य और आभ्यन्तर उच्छ्वास और निःश्वास के रूप में ग्रहण करता और छोड़ता है । भगवन् ! क्या वायुकाय, वायकाय में ही अनेक लाख वार मर कर पुनः पुनः (वायुकाय में ही) उत्पन्न होता है ? हाँ, गौतम ! वह पुनः वहीं उत्पन्न होता है ।।
__ भगवन् ! क्या वायुकाय स्वकायशस्त्र से या परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो कर मरण पाता है, अथवा अस्पृष्ट ही मरण पाता है ? गौतम ! वायुकाय, स्पृष्ट होकर मरण पाता है, किन्तु स्पृष्ट हुए बिना मरण नहीं पाता । भगवन् ! वायुकाय मर कर (जब दूसरी पर्याय में जाता है, तब) सशरीरी होकर जाता है, या अशरीरी होकर जाता है ? गौतम ! वह कथञ्चित् शरीरसहित होकर जाता है, कथञ्चित् शरीररहित हो कर जाता है । भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? गौतम ! वायुकाय के चार शरीर कहे गए हैं; वे इस प्रकार-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण । इनमें से वह औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे भव में जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीररहित जाता है और तैजस तथा कार्मण शरीर को साथ लेकर जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीरसहित जाता है । इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वायुकाय मर कर दूसरे भव में कथञ्चित् सशरीरी जाता है और कथञ्चित् अशरीरी जाता है ।
[१०९] भगवन् ! जिसने संसार का निरोध नहीं किया, संसार के प्रपंचों का निरोध नहीं किया, जिसका संसार क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म क्षीण नहीं हुआ, जिसका संसार व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जिसका संसार-वेदनीय कर्म व्युच्छिन्न नहीं हुआ, जो निष्ठितार्थ नहीं हुआ, जिसका कार्य समाप्त नहीं हुआ; ऐसा मृतादी (अचित्त, निर्दोष आहार करने वाला) अनगार पुनः मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है ? हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त स्वरूप वाला मृतादीनिर्ग्रन्थ फिर मनुष्यभव आदि भावों को प्राप्त होता है ।
[११०] भगवन् ! पूर्वोक्त निर्ग्रन्थ के जीव को किस शब्द से कहना चाहिए ? गौतम ! उसे कदाचित् 'प्राण' कहना चाहिए, कदाचित् 'भूत' कहना चाहिए, कदाचित् 'जीव' कहना चाहिए, कदाचित् ‘सत्व' कहना चाहिए, कदाचित् ‘विज्ञ' कहना चाहिए, कदाचित् 'वेद' कहना चाहिए, और कदाचित् 'प्राण, भूत, जीव, सत्त्व, विज्ञ और वेद' कहना चाहिए ।
हे भगवन् ! उसे 'प्राण' कहना चाहिए, यावत्-'वेद' कहना चाहिए, इसका क्या