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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
का आयुष्य ( करता है); उन्होने जो ऐसा कहा है, वह मिथ्या कहा है । हे गौतम! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है और वह या तो इस भव का आयुष्य करता है अथवा परभव का आयुष्य करता है । जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य नहीं करता और जिस समय परभव का आयुष्य करता है, उस समय इस भव का आयुष्य नहीं करता । तथा इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य नहीं करता । इस प्रकार एक जीव एक समय में एक आयुष्य करता है - इस भव का आयुष्य अथवा परभव का आयुष्य । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
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[९८] उस काल और उस समय ( भगवान् महावर के शासनकाल) में पाश्र्वापत्यीय) कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार जहाँ (भगवान् महावीर के) स्थविर भगवान् विराजमान थे, वहाँ गए । स्थविर भगवन्तों से उन्होंने कहा - " हे स्थविरो ! आप सामायिक को नहीं जानते, सामायिक के अर्थ को नहीं जानते; आप प्रत्याख्यान को नहीं जानते और प्रत्याख्यान के अर्थ को नहीं जानते; आप संयम को नहीं जानते और संयम के अर्थ को नहीं जानते; आप संवर को नहीं जानते, संवर के अर्थ को नहीं जानते; हे स्थविरो! आप विवेक को नहीं जानते और विवेक के अर्थ को नहीं जानते हैं, तथा आप व्युत्सर्ग को नहीं जानते और न व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं ।" तब उन स्थविर भगवन्तों ने कालास्यवेषिपुत्र अनगार से इस प्रकार कहा“हे आर्य ! हम सामायिक को जानते हैं, सामायिक के अर्थ को भी जानते हैं, यावत् हम व्युत्सर्ग को जानते हैं और व्युत्सर्ग के अर्थ को भी जानते हैं ।
उसके पश्चात् कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहाआर्यो ! यदि आप सामायिक को (जानते हैं) और सामायिक के अर्थ को जानते हैं, यावत् व्युत्सर्ग को एवं व्युत्सर्ग के अर्थ को जानते हैं, तो बतलाइये कि सामायिक क्या है और सामायिक का अर्थ क्या है ? यावत्... व्युत्सर्ग क्या है और व्युत्सर्ग का अर्थ क्या है ? तब उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कहां कि हे आर्य ! हमारी आत्मा सामायिक है, हमारी आत्मा सामायिक का अर्थ है; यावत् हमारी आत्मा व्युत्सर्ग है, हमारी आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है । इस पर कालास्यवेषिपुत्र, अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा - 'हे आर्यो ! यदि आत्मा ही सामायिक है, यावत् आत्मा ही व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो आप क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करके क्रोधादि की गर्हा - निन्दा क्यों करते हैं ?' हे कालास्यवेषिपुत्र ! हम संयम के लिए क्रोध आदि की गर्हा करते हैं ।
तो 'हे भगवन् ! क्या गर्हा संयम है या अगर्हा संयम है ?' हे कालास्यवेषिपुत्र ! गर्हा (पापों की निन्दा) संयम है, अगर्हा संयम नहीं है । गर्हा सब दोषों को दूर करती है - आत्मा समस्त मिथ्यात्व को जान कर गर्हा द्वारा दोषनिवारण करता है । इस प्रकार हमारी आत्मा संयम में पुष्ट होती है, और इसी प्रकार हमारी आत्मा संयम में उपस्थित होती है ।
वह कालास्यवेषिपुत्र अनगार बोध को प्राप्त हुए और उन्होने स्थविर भगवन्तों को, वन्दना-नमस्कार करके कहा - 'हे भगवन् ! इन (पूर्वोक्त) पदों को न जानने से पहले सुने हुए न होने से, बोध न होने से अभिगम न होने से, दृष्ट न होने से, विचारित न होने से, सुने हुए न होने से, विशेषरूप से न जानने से, कहे हुए न होने से, अनिर्णीत होने से, उद्धृत