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भगवती -१/-/९/९५
धर्मास्तिकाय से लेकर यावत् जीवास्तिकाय तक चौथे पद से ( अगुरुलघु) जानना चाहिए । भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय क्या गुरु है, लघु है, गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! पुद्गलास्तिकाय न गुरु है, न लघु है, किन्तु गुरुलघु है और अगुरुलघु भी है । भगवन् ! इसका क्या कारण है ? गौतम ! गुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरुलघु है, अगुरुलघु नहीं हैं । अगुरुलघु द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय गुरु नहीं, लघु नहीं है, न गुरु-लघु है, किन्तु अगुरुलघु है ।
समय और कार्मण शरीर अगुरुलघु हैं ।
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भगवन् ! कृष्णलेश्या क्या गुरु है, लघु है ? या गुरुलघु है अथवा अगुरुलघु है ? गौतम ! कृष्णलेश्या गुरु नहीं है, लघु नहीं है, किन्तु गुरुलघु है और अगुरुलघु भी है । भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है ? गौतम ! द्रव्यलेश्या की अपेक्षा तृतीय पद से ( अर्थात् - गुरुलघु) जानना चाहिए, और भावलेश्या की अपेक्षा चौथे पद से (अर्थात् अगुरुलघु) जानना चाहिए । इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक जानना चाहिए ।
द्दष्टि, दर्शन, ज्ञान, अज्ञान और संज्ञा को भी चतुर्थ पद से ( अगुरुलघु) जानना चाहिए | आदि के चारों शरीरों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर को तृतीय पद से ( गुरुलघु) जानना चाहिए, तथा कार्मण शरीर को चतुर्थ पद से ( अगुरुलघु) जानना चाहिए | मनोयोग और वचनयोग को चतुर्थ पद से (अगुरुलघु) और काययोग को तृतीय पद से (गुरुलघु) जानना चाहिए । साकारोपयोग और अनाकारोपयोग को चतुर्थ पद से जानना चाहिए । सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश और सर्वपर्याय पुद्गलास्तिकाय के समान समझना चाहिए । अतीतकाल, अनागत काल और सर्वकाल चौथे पद से अर्थात् अगुरुलघु जानना ।
[९६] भगवन् ! क्या लाघव, अल्पइच्छा, अमूर्च्छा, अनासक्ति और अप्रतिबद्धता, ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? हाँ गौतम ! लाघव यावत् अप्रतिबद्धता प्रशस्त हैं । भगवन् ! क्रोधरहितता, मानरहितता, मायारहितता और अलोभत्व, क्या ये श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त हैं ? हाँ क्रोधरहितता यावत् अलोभत्व, ये सब श्रमणनिर्ग्रन्थों के लिए प्रशस्त है । भगवन् ! क्या कांक्षाप्रदोष क्षीण होने पर श्रमणनिर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम ( चरम ) शरीरी होता है ? अथवा पूर्वावस्था में बहुत मोह वाला होकर विहरण करे और फिर संवृत होकर मृत्यु प्राप्त करे, तो क्या तत्पश्चात् वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? हाँ, गौतम ! सब दुःखों का अन्त करता है ।
[९७] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार विशेषरूप से कहते हैं, इस प्रकार बताते हैं, और इस प्रकार की प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता (बाँधता है । वह इस प्रकार इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य । जिस समय इस भव का आयुष्य करता है, उस समय परभव का आयुष्य करता है और जिस समय परभव का आयुष्य करता है, उस समय इहभव का आयुष्य करता है । इस भव का आयुष्य करने से परभव का आयुष्य करता है और परभव का आयुष्य करने से इस भव का आयुष्य करता है । इस प्रकार एक जीव एक समय में दो आयुष्य करता है - इस भव का आयुष्य और परभव का आयुष्य । भगवन् ! क्या यह इसी प्रकार है ?
गौतम ! अन्यतीर्थिक जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् इस भव का आयुष्य और परभव