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________________ भगवती-९/-/३३/४६४ २६५ भगवान् महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से इस प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ | उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया । फिर उस चार घंटा वाले अश्वस्थ पर आरूढ हुआ और रथारूढ हो कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, बहुशाल नामक उद्यान से निकला, यावत् मस्तक पर कोरंटपुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए महान् सुभटों इत्यादि के समूह से परिवृत्त होकर जहाँ क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था, वहाँ आया । वहाँ से वह क्षत्रियकुण्डग्राम के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । वहाँ पहुँचते ही उसने घोड़ों को रोका और रथ को खड़ा कराया । फिर वह रथ से नीचे उतरा और आन्तरिक उपस्थानशाला में, जहाँ कि उसके माता-पिता थे, वहाँ आया । आते ही उसने जय-विजय शब्दों से वधाया, फिर कहा 'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुना हे, वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर प्रतीत हुआ है ।' यह सुन कर माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तू धन्य है ! बेटा ! तू कृतार्थ हुआ है । पुत्र ! तू कृतपुण्य है । पुत्र ! तू कृतलक्षण है कि तूने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुझे इष्ट, विशेष प्रकार से अभीष्ट और रुचिकर लगा है । तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि ने दूसरी बार भी अपने माता-पिता से कहामैंने श्रमण भगवान् महावीर से वास्तविक धर्म सुना, जो मुझे इष्ट, अभीष्ट और रुचिकर लगा, इसलिए हे माता-पिता ! मैं संसार के रथ से उद्विग्न हो गया हूँ, जन्म-मरण से भयभीत हुआ हूँ । अतः मैं चाहता हूँ कि आप दोनों की आज्ञा प्राप्त होने पर श्रमण भंगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर गृहवास त्याग करके अनगार धर्म में प्रव्रजित होऊँ । क्षत्रियकुमार जमालि की माता उसके उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय और अश्रुतपूर्व वचन सुनकर और अवधारण करके रोमकूप से बहते हुए पसीने से उसका शरीर भीग गया । शोक के भार से उसके अंग-अंग कांपने लगे | निस्तेज हो गई । मुख दीन और उन्मना हो गया । हथेलियों से मसली हुई कमलमाला की तरह शरीर तत्काल मुा गया एवं दुर्बल हो गया । वह लावण्यशून्य, कान्तिरहित और शोभाहीन हो गई । आभूषण ढीले हो गए । हाथों की धवल चूड़ियाँ नीचे गिर कर चूर-चूर हो गई । उत्तरीय वस्त्र अंग से हट गया । मूविश उसकी चेतना नष्ट हो गई । शरीर भारी-भारी हो गया । सुकोमल केशराशि बिखर गई । वह कुल्हाड़ी से काटी हुई चम्पकलता की तरह एवं महोत्सव समाप्त होने के बाद इन्द्रध्वज की तरह शोभाविहीन हो गई । उसके सन्धिबन्धन शिथिल हो गए और वह धड़ाम से सारे ही अंगों सहित फर्श पर गिर पड़ी । इसके पश्चात् क्षत्रियकुमार जमालि की व्याकुलतापूर्वक इधर-उधर गिरती हुई माता के शरीर पर शीघ्र ही दासियों ने स्वर्णकलशों के मुख से निकली हुई शीतल एवं निर्मल जलधारा का सिंचन करके शरीर को स्वस्थ किया । फिर पंखों तथा ताड़ के पत्तों से बने पंखों से जलकणों सहित हवा की । तदनन्तर अन्तःपुर के परिजनों ने उसे आश्वस्त किया । रोती हुई, क्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई, एवं विलाप करती हुई माता क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहने लगी-पुत्र ! तू हमारा इकलौता पुत्र है, तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनसुहाता है, आधारभूत है विश्वासपात्र है, तू सम्मत, अनुमत और बहुमत है । तू आभूषणों के पिटारे के समान है, रत्नस्वरूप है, रत्नतुल्य है, जीवन या जीवितोत्सव के समान है, हृदय को आनन्द देने वाला है; उदुम्बर के फूल के समान तेरा नाम-श्रवण भी दुर्लभ है,
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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