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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
उदीरणा करते हैं, सो क्या अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? या वर्तमान काल में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? अथवा जिनका उदयकाल आगे आने वाला है, ऐसे पुद्गलों की उदीरणा करते हैं ? हे गौतम ! वे अतीत काल में गृहीत पुद्गलों की उदीरणा करते हैं, (परन्तु ) वर्तमान काल में ग्रहण किये जाते हुए पुद्गलों की उदीरणा नहीं करते, तथा आगे ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं करते । इसी प्रकार अतीत काल में गृहीत पुद्गलों को वेदते हैं, और उनकी निर्जरा करते हैं ।
[१८] भगवन् ! क्या नारक जीवप्रदेशों से चलित कर्म को बांधते हैं, या अचलित कर्म को बांधते हैं ? गौतम ! (वे) चलित कर्म को नहीं बांधते, (किन्तु ) अचलित कर्म को बांधते हैं । इसी प्रकार अचलित कर्म की उदीरणा करते हैं, अचलित कर्म का ही वेदन करते हैं, अपवर्तन करते हैं, संक्रमण करते हैं, निधत्ति करते हैं और निकाचन करते हैं । इन सब पदों में अचलित (कर्म) कहना चाहिए, चलित (कर्म) नहीं ।
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भगवन् ! क्या नारक जीवप्रदेश से चलित कर्म की निर्जरा करते हैं अथवा अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं ? गौतम ! (वे) चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते ।
[२०] बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्त्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन के विषय में अचलित कर्म समझना चाहिए और निर्जरा के विषय में चलित कर्म समझना चाहिए । [२१] ईसी तरह स्थिति और आहार के विषय में भी समझ लेना । जिस तरह स्थिि पद में कहा गया है उसी तरह स्थिति विषय में कहेना चाहिए । सर्व जीव संबंध आहार भी पन्नवणा सूत्र के प्रथम उद्देशक में कहा गया है ऊसी तरह कहना चाहिए ।
भगवन् ! असुरकुमारों की स्थिति कितने काल की है ? हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम से कुछ अधिक की है । भगवन् ! असुरकुमार कितने समय में श्वास लेते हैं और निःश्वास छोड़ते हैं ? गौतम ! जघन्य सात स्तोकरूप काल में और उत्कृष्ट एक पक्ष से (कुछ) अधिक काल में श्वास लेते और छोड़ते हैं ।
हे भगवन् ! क्या असुरकुमार आहार के अभिलाषी होते हैं ? हाँ, गौतम ! (वे) आहार अभिलाषी होते हैं । हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? गौतम ! असुरकुमारों का आहार दो प्रकार का कहा गया है; जैसे कि - आभोगनिवर्त्तित और अनाभोग - निर्वर्त्तित । इन दोनों में से जो अनाभोग- निर्वर्त्तित आहार है, वह विरहरहित प्रतिसमय ( सतत ) होता रहता है । ( किन्तु ) आभोगनिर्वर्त्तित आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थभक्त अर्थात् - एक अहोरात्र से और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष से कुछ अधिक काल में होती है । भगवन् ! असुरकुमार किन पुद्गलों का आहार करते हैं ? गौतम ! द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं । क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्रज्ञापनासूत्र का वही वर्णन जान लेना चाहिए, जो नैरयिकों के प्रकरण में कहा गया है ।
हे भगवन् ! असुरकुमारों द्वारा आहार किये हुए पुद्गल किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में, सुन्दर रूप में, सु-वर्णरूप में, इष्ट रूप में, इच्छित रूप में, मनोहर ( अभिलषित) रूप में, ऊर्ध्वरूप में परिणत होते हैं,