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________________ १८६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उसी के समान उम्र का और उसी के समान अस्त्र-शस्त्रादि उपकरणों से युक्त था । तब उस पुरुष ने वरुण नागनतृक को इस प्रकार कहा-“हे वरुण नागनप्तृक ! मुझ पर प्रहार कर, अरे, वरुण नागनप्तक । मुझ पर वार कर !" इस पर वरुण नागनप्तृक ने उस पुरुष से यों कहा"हे देवानप्रिय ! जो मुझ पर प्रहार न करें, उस पर पहले प्रहार करने का मेरा कल्प (नियम) नहीं है । इसलिए तुम (चाहो तो) पहले मुझ पर प्रहार करो ।" । तदनन्तर वरुण नागनप्तृक के द्वारा ऐसा कहने पर उस पुरुष ने शीघ्र ही क्रोध से लाल-पीला हो कर यावत् दांत पीसते हुए अपना धनुष उठाया । फिर बाण उठाया फिर धनुष पर यथास्थान बाण चढ़ाया । फिर अमुक आसन से अमुक स्थान पर स्थित होकर धनुष को कान तक खींचा । ऐसा करके उसने वरुण नागनप्तृक पर गाढ़ प्रहार किया । गाढ़ प्रहार से घायल हुए वरुण नागनप्तृक ने शीघ्र कुपित होकर यावत् मिसमिसाते हुए धनुष उठाया । फिर उस पर बाण चढ़ाया और उस बाण को कान तक खींचकर उस पुरुष पर छोड़ा । जैसे एक ही जोरदार चोट से पत्थर के टुकड़े-टुकड़े हो जाता हैं, उसी प्रकार वरुण नागनप्तृक ने एक ही गाढ़ प्रहार से उस पुरुष को जीवन से रहित कर दिया । उस पुरुष के गाढ़ प्रहार से सख्त घायल हुआ वरुण नागनतृक अशक्त, अबल, अवीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम से रहित हो गया । अतः 'अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा' ऐसा समझकर उसने घोड़ों को रोका, रथ को वापिस फिराया और रथमूसलसंग्रामस्थल से बाहर निकल गया । एकान्त स्थान में आकर रथ को खड़ा किया । फिर रथ से नीचे उतरकर उसने घोड़ों को छोड़ कर विसर्जित कर दिया । फिर दर्भ का संथारा बिछाया और पूर्वदिशा की ओर मुंह करके दर्भ के संस्तारक पर पर्यकासन से बैठा और दोनों हाथ जोड़ कर यावत् कहा अरिहन्त भगवन्तों को, यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, नमस्कार हो । मेरे धर्मगुरु, धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले यावत् सिद्धगति प्राप्त करने के इच्छुक हैं । यहाँ रहा हुआ मैं वहाँ रहे हुए भगवान् को वन्दन करता हैं । वहाँ रहे हुए भगवान् मुझे देखें । इत्यादि कहकर यावत् वन्दन-नमस्कार करके कहा - पहले मैंने श्रमण भगवान् महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान किया था, किन्तु अब मैं उन्हीं अरिहन्त भगवान् महावीर के पास (साक्षी से) सर्व प्राणातिपात का जीवनपर्यन्त के लिए प्रत्याख्यान करता हूँ । इस प्रकार स्कन्दक की तरह (अठारह ही पापस्थानों का सर्वथा प्रत्याख्यान कर दिया ।) फिर इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ व्युत्सर्ग करता हूँ, यों कह कर उसने कवच खोल दिया । लगे हए बाण को बाहर खींचा । उसने आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधियुक्त होकर मरण प्राप्त किया । उस वरुण नागनप्तृक का एक प्रिय बालमित्र भी रथमूसलसंग्राम में युद्ध कर रहा था । वह भी एक पुरुष द्वारा प्रबल प्रहार करने से घायल हो गया । इससे अशक्त, अबल, यावत् पुरुषार्थ-पराक्रम से रहित बने हुए उसने सोचा-अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा । जब उसने वरुण नागनतृक को रथमूसलसंग्राम-स्थल से बाहर निकलते हुए देखा, तो वह भी अपने स्थ को वापिस फिरा कर रथमूसलसंग्राम से बाहर निकला, घोड़ों को रोका और जहाँ वरुण नागनप्तृक ने घोड़ों को रथ से खोलकर विसर्जित किया था, वहाँ उसने भी घोड़ों को विसर्जित
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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