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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[३३८] भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित, सामुदायिक भिक्षारूप पान - भोजन का क्या अर्थ है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी शस्त्र और मूसलादि का त्याग किये हुए हैं, पुष्प माला और विलेपन से रहित हैं, वे यदि उस आहार को करते हैं, जो कृमि आदि जन्तुओं से रहित, जीवच्युत और जीवविमुक्त है, जो साधु के लिए नहीं बनाया गया है, न बनवाया गया है, जो असंकल्पित है, अनाहूत हैं, अक्रीतकृत है, अनुद्दिष्ट है, नवकोटिविशुद्ध है, दस दोषों से विमुक्त है, उद्गम और उत्पादना सम्बन्धी एषणा दोषों से रहित है, अंगारदोषरहित है, धूमदोषरहित है, संयोजनादोषरहित है तथा जो सुरसुर और चपचप शब्द से रहित, बहुत शीघ्रता और अत्यन्त विलम्ब से रहित, आहार को लेशमात्र भी छोड़े बिना, नीचे न गिराते हुए, गाड़ी की धुरी के अंजन अथवा घाव पर लगाए जानेवाले लेप की तरह केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और संयम भार को वहन करने के लिए, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार जो आहार करते हैं, तो वह शस्त्रातीत, यावत् पान - भोजन का अर्थ है । भगवन् ! यह इसी प्रकार है' ।
शतक - ७ उद्देशक - २
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[३३९] हे भगवन् ! 'मैंने सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है', इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? गौतम ! 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, ऐसा कहनेवाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है ।
भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! 'मैंने समस्त प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहनेवाले को इस प्रकार अवगत नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं; उस का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है । साथ ही, 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है,' ऐसा कहनेवाला दुष्प्रत्याख्यानी सत्यभाषा नहीं बोलता; किन्तु मृषाभाषा बोलता है । इस प्रकार वह मृषावादी सर्व प्राण यावत् समस्त सत्त्वों के प्रति तीन तीन योग से असंयत, अविरत, पापकर्म से अप्रतिहत और पापकर्म का अप्रत्याख्यानी, क्रियाओं से युक्त, असंवृत, एकान्तदण्ड एवं एकान्तबाल है ।
करण,
'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है,' यों कहने वाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं और ये स्थावर हैं', उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं है । 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है,' इस प्रकार कहता हुआ वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषा बोलता है, मृषाभाषा नहीं बोलता । इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्व प्राण यावत् सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से संयत, विरत है । ( अतीतकालीन) पापकर्मों को उसने घात कर दिया है, (अनागत पापों को) प्रत्याख्यान से त्याग दिया है, वह अक्रिय है, संवृत है, और एकान्त पण्डित है । इसीलिए, ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है
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? गौतम ! प्रत्याख्यान
[३४०] भगवन् ! प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया