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भगवती-६/-/७/३११
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[३११] इस सागरोपम-परिमाण के अनुसार ( अवसर्पिणीकाल में ) चार कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक सुषम-सुषमा आरा होता है; तीन कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमा आरा होता है; दो कोटाकोटि सागरोपम - काल का एक सुषमदुःषमा आरा होता है; बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक दुःषमसुषमा आरा होता है; इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषम आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषमदुःषमा आरा होता है । इसी प्रकार उत्सर्पिणीकाल में पुनः इक्कीस हजार वर्ष परिमित काल का प्रथम दुःषमदुःषमा आरा होता है । इक्कीस हजार वर्ष का द्वितीय दुःषम आरा होता है, बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम-काल का तीसरा दुःषम-दुषमा आरा होता है यावत् चार कोटाकोटि सागरोपम-काल का छठा सुषम- सुषमा आरा होता है । इस प्रकार (कुल) दस कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक अवसर्पिणीकाल होता है और दस कोटाकोटि सागरोपमकाल का ही उत्सर्पिणीकाल होता है । यों बीस कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणीउत्सर्पिणी - कालचक्र होता है ।
[३१२] भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ प्राप्त इस अवसर्पिणीकाल के सुषम- सुषमा नामक आरे में भरतक्षेत्र के आकार, भाव- प्रत्यवतार किस प्रकार के थे ? गौतम ! भूमिभाग बहुत सम होने से अत्यन्त रमणीय था । जैसे कोई मुरज नामक वाद्य का चर्ममण्डित मुखपट हो, वैसा बहुत ही सम भरतक्षेत्र का भूभाग था । इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरु की वक्तव्यता के समान, यावत् बैठते हैं, सोते हैं, यहाँ तक वक्तव्यता कहन चाहिए । उस काल में भारतवर्ष में उन उन देशों के उन उन स्थलों में उदार एवं कुद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे; यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे । यथापद्मगध वाले, मृगगन्ध वाले, ममत्वरहित, तेजस्वी एवं रूपवान्, सहा और शनैश्चर थे । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है' ।
शतक - ६ उद्देशक- ८
[३१३] भगवन् ! कितनी पृथ्वीयाँ कही गई हैं ?' गौतम ! आठ । रत्नप्रभा यावत् ईषत्प्राग्भा । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे गृह अथवा गृहापण हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे महान् मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? हाँ, गौतम ! हैं, ये सब कार्य देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं और नाग भी करते हैं । भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में बादर स्तनितशब्द है ? हाँ, गौतम ! है, जिसे ( उपर्युक्त ) तीनों ही करते है ।
भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । यह निषेध विग्रहगतिसमापन्नक जीवों के सिवाय (दूसरे जीवों के लिए समझना चाहिए ।) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? ( गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में चन्द्रभा, सूर्याभा आदि हैं ? ( गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है
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इसी प्रकार दूसरी पृथ्वी के लिए भी कहना चाहिए । इसी प्रकार तीसरी पृथ्वी के लिए
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