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भगवती-६/-/२/२७७
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| शतक-६ उद्देशक-२ [२७७] राजगृह नगर में...यावत् भगवान् महावीर ने फरमाया यहाँ प्रज्ञापना सूत्र में जो आहार-उद्देशक कहा है, वह सम्पूर्ण जान लेना । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
| शतक-६ उद्देशक-३ [२७८] १. बहुकर्म, २. वस्त्र में प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से (विस्त्रसा) पुद्गल, ३. सादि, ४. कर्मस्थिति, ५. स्त्री, ६. संयत, ७. सम्यग्दृष्टि, ८. संज्ञी । तथा
[२७९] ९. भव्य, १०. दर्शन, ११. पर्याप्त, १२. भाषक, १३. परित्त, १४. ज्ञान, १५. योग, १६. उपयोग, १७. आहारक, १८. सूक्ष्म, १९. चरम-बन्ध और २०. अल्पबहुत्व, का वर्णन इस उद्देशक में किया गया है ।
[२८०] भगवन् ! क्या निश्चय ही महाकर्मवाले, महाक्रियावाले, महाश्रववाले और महावेदनावाले जीव के सर्वतः पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वतः पुद्गलों का चय होता है ? सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का बन्ध होता है ? सदा सतत पुद्गलों का चय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसका आत्मा दुरूपता में, दुर्वर्णता में, दुर्गन्धता में, दुःरसता में, दुःस्पर्शता में, अनिष्टता में, अकान्तता, अप्रियता, अशुभता अमनोज्ञता और अमनोगमता में, अनिच्छनीयता में, अनभिध्यितता में, अधमता में, अनूचंता में, दुःखरूप में,-असुखरूप में बार-बार परिणत होता है ? हाँ, गौतम ! महाकर्म वाले जीव के...यावत् ऊपर कहे अनुसार...यावत् परिणत होता है ।
(भगवन् !) किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई अहत (जो पहना गया न हो), धौत, तन्तुगत वस्त्र हो, वह वस्त्र जब क्रमशः उपयोग में लिया जाता है, तो उसके पुद्गल सब ओर से बंधते हैं, सब ओर से चय होते हैं, यावत् कालान्तर में वह वस्त्र अत्यन्त मैला और दुर्गन्धित रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार महाकर्मवाला जीव उपर्युक्त रूप से यावत् असुखरूप में बार-बार परिणत होता है ।।
___ भगवन् ! क्या निश्चय ही अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्प आश्रव वाले और अल्पवेदनावाले जीव के सर्वतः पुद्गल भिन्न हो जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छिन होते जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल विध्वस्त होते जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल समग्ररूप से ध्वस्त हो जाते हैं ?, क्या सदा सतत पुद्गल भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते हैं ? क्या उसका आत्मा सदा सतत सुरूपता में यावत् सुखरूप में और अदुःखरूप में बार-बार परिणत होता है ? हाँ, गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव का...यावत् ऊपर कहे अनुसार ही...यावत् परिणत होता है । भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई मैला, पंकित, मैलसहित अथवा धूल से भरा वस्त्र हो और उसे शुद्ध करने का क्रमशः उपक्रम किया जाए, उसे पानी से धोया जाए तो उस पर लगे हुए मैले–अशुभ पुद्गल सब ओर से भिन्न होने लगते हैं, यावत् उसके पुद्गल शुभरूप में परिणत हो जाते है, इसी कारण (हे गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव के लिए कहा गया है कि वह...यावत् बारबार परिणत होता है ।)
[२८१] भगवन् ! वस्त्र में जो पुद्गलों का उपचय होता है, वह क्या प्रयोग (पुरुषप्रयत्न) से होता है, अथवा स्वाभाविक रूप से ? गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है,