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भगवती-३/-/४/१८७
श्यावालों में उत्पन्न होता है । जैसे कि तेजोलेश्या, पद्मलेश्या अथवा शुक्ललेश्या में । [१८८] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभारगिरि को उल्लंघ सकता है, अथवा प्रलंघ सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके क्या वैभारगिरि को उल्लंघन या प्रलंघन करने में समर्थ है ? हाँ गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है ।
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भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना राजगृह नगर में जितने भी ( पशु पुरुषादि) रूप हैं, उतने रूपों की विकुर्वणा करके तथा वैभारपर्वत में प्रवेश करके क्या सम पर्वत को विषम कर सकता है ? अथवा विषमपर्वत को सम कर सकता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी तरह दूसरा आलापक भी कहना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह (भावितात्मा अनगार) बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से (रूपों की विकुर्वणा आदि) करने में समर्थ है ।
भगवन् ! क्या मायी मनुष्य विकुर्वणा करता है, अथवा अमायी मनुष्य विकुर्वणा करता है ? गौतम ! मायीमनुष्य विकुर्वणा करता है, अमायीमनुष्य विकुर्वणा नहीं करता । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! मायी अनगार प्रणीत पान और भोजन करता है । इस प्रकार बार-बार प्रणीत पान-भोजन करके वह वमन करता है । उस प्रणीत पान - भोजन से उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा सघन हो जाती है; उसका रक्त और मांस पतला हो जाता है । उस भोजन के जो यथाबादर पुद्गल होते हैं, उनका उस-उस रूप में परिणमन होता है । यथा श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रियरूप में तथा हड्डियों, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, वीर्य और रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं । अमायी मनुष्य तो रूक्ष पान-भोजन का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष पान - भोजन का उपभोग करके वह वमन नहीं करता । उस रूक्ष पान- भोजन से उसकी हड्डियाँ तथा हड्डियों की मज्जा पतली होती है और उसका मांस और रक्त गाढ़ा हो जाता है । उस पान भोजन के जो यथाबादर पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उस उस रूप में होता है । यथा - उच्चार, प्रस्त्रवण, यावत् रक्तरूप में अतः इस कारण से अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता ।
मी मनुष्य उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना (यदि ) काल करता है, तो उसके आराधना नहीं होती । ( किन्तु ) उस (विराधना ) स्थान के विषय में पश्चात्ताप करके अमायी ( बना हुआ) मनुष्य (यदि ) आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ।
शतक - ३ उद्देशक - ५
[१८९] भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बड़े स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके क्या एक बड़े स्त्रीरूप की यावत् स्यन्दमानिका रूप की विकुर्वणा कर सकता है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा कर सकता है । भगवन् ! भावितात्मा अनगार, कितने स्त्रीरूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? हे गौतम ! जैसे कोई युवक, अपने हाथ से युवती के हाथ को पकड़ लेता है, अथवा जैसे चक्र