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स्थान- ४/१/२६४
[२६४] चार कारणों से जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चयन किया हैं, यथा- क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से । इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार " ग्रहण करते हैं" यह दण्डक भी जान लेना चाहिए । इसी प्रकार “ग्रहण करेंगे" यह दण्डक भी समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार चयन के तीन दण्डक हुए ।
इसी प्रकार उपचय किया, करते हैं और करेंगे । बन्ध किया, करते हैं और करेंगे । उदीरणा की, करते हैं और करेंगे । वेदन किया, करते हैं और करेंगे । निर्जरा की, करते हैं और करेंगे । यों वैमानिक पर्यन्त चौवीस दण्डक में "उपचय- यावत्- निर्जरा करेंगे" तीन-तीन दण्डक समझ लेने चाहिए ।
[२६५] चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा-समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा । चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा- भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा । चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा- क्षुद्रामोकप्रतिमा, महती मोकप्रतिमा, यवमध्याप्रतिमा, वज्रमध्याप्रतिमा ।
[२६६] चार अजीव अस्तिकाय कहे गये हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ।
चार अरूपी अस्तिकाय कहे गये हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय ।
[२६७] चार प्रकार के फल कहे गये हैं, यथा- कोई कच्चा होने पर भी थोड़ा मीठा होता हैं, कोई कच्चा होने पर भी अधिक मीठा होता हैं, कोई पक्का होने पर भी थोड़ा मीठा होता हैं कोई पक्का होने पर ही अधिक मीठा होता है । इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं, यथा श्रुत और वय से अल्प होते हुए भी थोड़े मीठे फल के समान अल्प उपशमादि गुण वाले होते हैं ।
[२६८] चार प्रकार के सत्य कहे गये हैं, यथा- काया की सरलतारूप सत्य, भाषा की सरलतारूप सत्य, भावों की सरलतारूप सत्य, अविसंवाद योगरूप सत्य ।
चार प्रकार का मृषावाद कहा गया हैं, काया की वक्रतारूप मृषावाद, भाषा की वक्रतारूप मृषावाद, भावों की वक्रतारूप मृषावाद, विसंवाद योगरूप मृषावाद ।
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चार प्रकार के प्रणिधान हैं, मन- प्रणिधान, वचन - प्रणिधान, काय- प्रणिधान, उपकरणप्रणिधान । ये चारों नारक - यावत् - वैमानिक पर्यन्त पंचेन्द्रिय दण्डकों में जानना । चार प्रकार सुप्रणिधान है, यथा-मन- सुप्रणिधान यावत्-उपकरण - सुप्रणिधान । यह संयत मनुष्यों में ही पाये जाते हैं । चार प्रकार के दुष्पणिधान हैं, यथा- मन- दुष्प्रणिधान यावत्-उपकरण - दुष्प्रणिधान । यह पंचेन्द्रियों को - यावत्-वैमानिकों को होता हैं ।
[२६९] चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं, यथा- कोई प्रथम मिलन में वार्तालाप से भद्र लगते हैं परन्तु सहवास से अभद्र मालूम होते हैं, कोई सहवास से भद्र मालूम होते हैं पर प्रथम मिलन में अभद्र लगते हैं, कोई प्रथम मिलन में भी भद्र होते हैं और सहवास से भी भद्र मालूम होते हैं, कोई प्रथम मिलन में भी भद्र नहीं लगते और सहवास से भी भद्र मालूम नहीं होते । चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं, कोई अपने दोष देखता है, दूसरों के नहीं, कोई दूसरों के दोष देखता हैं, अपने नहीं । इस प्रकार चौभंगी जाननी चाहिए ।
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