________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
रौद्रध्यान चार प्रकार का है, हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी संरक्षणाणुबन्धी । रोद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, यथा - हिंसादि दोषों में से किसी एक में अत्यन्त प्रवृत्ति करना, हिंसादि सब दोषों में बहुविध प्रवृत्ति करना, हिंसादि अधर्मकार्य में धर्म- बुद्धि से या अभ्युदय के लिये प्रवृत्ति करना, मरण पर्यन्त हिंसादि कृत्यों के लिये पश्चात्ताप न होना आमरणान्त दोष हैं ।
६४
चार प्रकार का धर्मध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षा रूप चार पदों से चिन्तनीय हैं आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय । धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं यथा - आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि अवगाढरुचि । धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे गये हैं, यथा - वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा । धर्मध्यान की चार भावनाएं कही गई हैं, यथा- एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारानुप्रेक्षा ।
शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया हैं, यथा- पृथक्त्ववितर्क सविचारी । एकत्ववितर्क अविचारी सूक्ष्म-क्रिया अनिवृत्ति समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, यथा-अव्यथ, असम्मोह, विवेक, व्युत्सर्ग । शुक्लध्यान के चार आलम्बन है यथाक्षमा, निर्ममत्व, मृदुता और सरलता । शुक्लध्यान की चार भावनाएं कही गई है यथाअनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा, अपायानुप्रेक्षा,
[२६२] देवों की स्थिति चार प्रकार की हैं, यथा- कोई सामान्य देव हैं, कोई देवों में स्नातक (प्रधान) हैं, कोई देव पुरोहित हैं, कोई स्तुति - पाठक देव हैं । चार प्रकार का संवास कहा गया हैं, यथा- - कोई देव देवी के साथ संवास करता हैं, कोई देव मानुषी नारी या तिर्यंच स्त्री के साथ संवास करता हैं, कोई मनुष्य या तिर्यंच-पुरुष देवीके साथ संवास करता हैं, कोई मनुष्य या तिर्यंच पुरुष मानुषी या तिर्चची के साथ संवास करता हैं ।
[२६३] चार कषाय कहे गये हैं, यथा- क्रोधाकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । ये चारों कषाय नारक यावत्-वैमानिकों में पाये जाते हैं क्रोध के चार आधार कहे गये हैं, यथा- आत्मप्रतिष्ठित परप्रतिष्ठित तदुभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ये क्रोध के चार आधार नैरयिक-यावत्-वैमानिक पर्यन्त सब में पाये जाते हैं ।
इसी प्रकार - यावत्-लोभ के भी चार आधार हैं । मान, माया और लोभ के चार आधार वैमानिक पर्यन्त सब दण्डकों में पाये जाते हैं ।
चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती हैं, यथा- क्षेत्र के निमित्त से, वस्तु के निमित्त से, शरीर के निमित्त से, उपधिके निमित्त से । इस प्रकार नारक - यावत् - वैमानिक में जानना चाहिए । इसी प्रकार - यावत्-लोभ की उत्पत्ति भी चार प्रकार से होती हैं । यह मान, माया और लोभ की उत्पत्ति नारक-जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सब में होती हैं ।
चार प्रकार का क्रोध कहा गया हैं, यथा- अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, संज्वलन क्रोध । यह चारों प्रकार को क्रोध नारक - यावत्-वैमानिकों में इसी तरह - यावत्-लोभ भी वैमानिक पर्यन्त हैं । चार प्रकार का क्रोध कहा गया हैं, यथाआभोगनिवर्त्तित, अनाभोगर्निवर्तित, उपशान्तक्रोध, अनुपशान्त क्रोध । यह चारों प्रकार का क्रोध नैरयिक- यावत्-वैमानिकों में होता हैं ।
इसी तरह यावत्-चार प्रकार का लोभ यावत्-वैमानिक में पाया जाता हैं ।