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स्थान-३/४/२४६
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के कहे गये हैं, यथा-मध्यमाधस्तन ग्रैवेयक विमानप्रस्तर, मध्यममध्यम ग्रैवेयक विमानप्रस्तर, मध्यमोपरितन ग्रैवेयक विमानप्रस्तर । उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-उपरितनअधस्तनग्रैवेयक विमानप्रस्तर, उपरितनमध्यम ग्रैवेयक विमानप्रस्तर, उपरितनोपरितनग्रैवेयक विमानप्रस्तर ।
[२४७] जीवोंने तीन स्थानों में अर्जित पुद्गलों को पापकर्म रूप में एकत्रित किये, करते हैं और करेगें, यथा-स्त्रीवेदनिवर्तित, पुरुषवेदनिवर्तित, नपुसंकवेदनिवर्तित । पुद्गलों का एकत्रित करना, वृद्धि करना, बंध, उदीरणा, वेदन तथा निर्जरा का भी इसी तरह कथन समझना चाहिए । [२४८] तीन प्रदेशी स्कन्ध यावत्-त्रिगुण रूक्ष पुद्गल अनन्त कहे गये हैं । स्थान-३-का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(स्थान-४)
उद्देशक-१ [२४९] चार प्रकार की अन्त क्रियाएं कही गई हैं, उनमें प्रथम अन्तक्रिया इस प्रकार हैं- कोई अल्पकर्मा व्यक्ति मनुष्य-भव में उत्पन्न होता हैं, वह मुण्डित होकर गृहस्थावस्था से अनगार धर्म में प्रव्रजित होने पर उत्तम संयम, संवर और समाधि का पालन करने वाला रुक्षवृत्तिवाला संसार को पार करने का अभिलाषी; शास्त्राध्ययन के लिए तप करने वाला, दुःख का क्षय करने वाला, तपस्वी होता है । उसे घोर तप नहीं करना पडता हैं और न उसे घोर वेदना होती है । (क्योंकि वह अल्पकर्मा ही उत्पन्न हआ है) । ऐसा पुरुष दीर्घायु भोगकर सिद्ध होता हैं, बुद्ध होता हैं, मुक्त होता हैं, निर्वाण प्राप्त करता हैं और सब दुखों का अन्त करता हैं । जैसे- चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा । यह पहली अन्तक्रिया है ।
दूसरी अन्तक्रिया इस प्रकार हैं - कोई व्यक्ति अधिक कर्मवाला मनुष्य-भव में उत्पन्न होता हैं, वह मुण्डित होकर गृहस्थवास्था से अनगार-धर्म में प्रव्रजित होकर संयम युकत; संवर युकत-यावत्-उपधान-वान्, दुख का क्षय करनेवाला और तपस्वी होता हैं । उसे घोर तप करना पड़ता है और उसे घोर वेदना होती है । ऐसा पुरुष अल्पआयु भोगकर सिद्ध होता हैं -यावत्-दुःखों का अन्त करता है, जैसे गजसुकुमार अणगार ।
तीसरी अन्तक्रिया इस प्रकार हैं - कोई अल्पकर्मा व्यक्ति मनुष्य-भव में उत्पन्न होता हैं, वह मुण्डित होकर अगार अवस्था से अनगारधर्म में दीक्षित हुआ, जैसे दूसरी अन्तक्रिया में कहा उसी तरह सर्व कथन करना चाहिए, विशेषता यह है कि वह दीर्घायु भोगकर होता है-यावत्-सब दुःखो का अन्त करता हैं । जैसे चातुरन्त चक्रवर्ती राजा सनत्कुमार ।
चौथी अन्तक्रिया इस प्रकार हैं- कोई अल्पकर्मा व्यक्ति मनुष्य-भव में उत्पन्न होता हैं । वह मुण्डित होकर-यावत्-दीक्षा लेकर उत्तम संयम का पालन करता हैं-यावत्-न तो उसे घोर तप करना पड़ता है और न उसे घोर वेदना सहनी पड़ती हैं । ऐसा पुरुष अल्पायु भोगकर सिद्ध होता हैं - यावत्-सब दुःखों का अन्त करता हैं । जैसे भगवती मरुदेवी ।
[२५०] चार प्रकार के वृक्ष कहे गये हैं, यथा-कितनेक द्रव्य से भी ऊंचे और भाव