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समवाय- ३२/१०५
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सुविधि - अपने चारित्र का विधि- पूर्वक सत्- अनुष्ठान अर्थात् सम्यक् परिपालन करे । संवर- कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे । आत्मदोषोपसंहार - अपने दोषों का निरोध करे - दोष न लगने दे । सर्वकामविरक्तता - सर्व विषयों से विरक्त रहे ।
[१०६] मूलगुण- प्रत्याख्यान - अहिंसादि मूल गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे । उत्तर -गुण- प्रत्याख्यान - इन्द्रिय-निरोध आदि उत्तर गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे । व्युत्सर्ग-वस्त्र- पात्र आदि बाहरी उपधि और मूर्च्छा आदि आभ्यन्तर उपधि को त्यागे । अप्रमाद - अपने दैवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे । लवालव - प्रतिक्षण अपनी सामाचारी के परिपालन में सावधान रहे । ध्यान-संवरयोग-धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए आस्त्रव द्वारों का संवर करे । मारणान्तिक कर्मोदय के होने पर भी क्षोभ न करे, मनमें शान्ति रखे । [१०७] संग - परिज्ञा-संग (परिग्रह) की परिज्ञा करे अर्थात् उसके स्वरूप को जान कर
त्याग करे
प्रायश्चित्तकरण - अपने दोषों की शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित्त करे ।
मारणान्तिक- आराधना --मरने के समय संलेखना - पूर्वक ज्ञान-दर्शन, चारित्र और तप की विशिष्ट आराधना करे । यह बत्रीस योग संग्रह है ।
[१०८] बत्तीस देवेन्द्र कहे गये हैं । जैसे—१. चमर, २. बली, ३. धरण, ४. भूतानन्द, यावत् (५. वेणुदेव, ६. वेणुदाली, ७. हरिकान्त, ८. हरिस्सह, ९. अग्निशिख, १०. अग्निमाणव, ११. पूर्ण, १२. वशिष्ठ, १३. जलकान्त, १४. जलप्रभ, १५. अमितगति, १६. अमितवाहन, १७. वेलम्ब, १८. प्रभंजन) १९. घोष, २०. महाघोष, २१. चन्द्र, २२. सूर्य, २३. शक्र, २४. ईशान, २५ सनत्कुमार, यावत् (२६. माहेन्द्र, २७. ब्रह्म, २८. लान्तक, २९. शुक्र, ३०. सहस्त्रार) ३१. प्राणत, ३२. अच्युत ।
कुन्थु अर्हत् के बत्तीस अधिक बत्तीस सौ (३२३२) केवलि जिन थे ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति बत्तीसी पल्योपम कही गई है । अधस्तन सातवीं पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है ।
सौधर्म - ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम है ।
जो देव विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उनमें से कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम है । वे देव सोलह मासों के बाद आनप्राण या उच्छ्वास- निःश्वास लेते हैं । उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व कर्मों का अन्त करेंगे ।
समवाय - ३२ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण