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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
[४०] ११ अर्थ, १२ सूर्यावर्त, १३ सूर्यावरण, १४ उत्तर, १५ दिशादि और १६ अवतंस ।
[४१] पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की थी। आत्मप्रवाद पूर्व के वस्तु नामक सोलह अर्थाधिकार कहे गये हैं । चमरचंचा और बलीचंचा नामक राजधानियों के मध्य भाग में उतार-चढ़ाव रूप अवतारिकालयन वृत्ताकार वाले होने से सोलह हजार आयाम-विष्कम्भ वाले कहे गये हैं । लवणसमुद्र के मध्य भाग में जल के उत्सेध की वृद्धि सोलह हजार योजन कही गई है । ..
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है । पाँचवीं धूमप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकियों की स्थिति सोलह सागरोपम की कही गई है । कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है ।
सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सोलह पल्योपम है ।
महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति सोलह सागरोपम है । वहाँ जो देव आवर्त, व्यावर्त, नन्द्यावर्त, महानन्द्यावर्त, अंकुश, अंकुशप्रलम्ब, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और भद्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सोलह सागरोपम है । वे देव आठ मासों के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं । उन देवों को सोलह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सोलह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे । समवाय-१६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
, (समवाय-१७ [४२] सत्तरह प्रकार का असंयम है । पृथ्वीकाय-असंयम, अप्काय-असंयम, तेजस्कायअसंयम, वायुकाय-असंयम, वनस्पतिकाय-असंयम, द्वीन्द्रिय-असंयम, त्रीन्द्रिय-असंयम, चतुरिन्द्रिय-असंयम, पंचेन्द्रिय-असंयम, अजीवकाय-असंयम, प्रेक्षा-असंयम, उपेक्षा-असंयम, अपहृत्य-असंयम, अप्रमार्जना-असंयम, मनःअसंयम, वचन-असंयम, काय-असंयम ।
सत्तरह प्रकार का संयम कहा गया है । जैसे- पृथ्वीकाय-संयम, अप्काय-संयम, तेजस्काय-संयम, वायुकाय-संयम, वनस्पतिकाय-संयम, द्वीन्द्रिय-संयम, त्रीन्द्रिय-संयम, चतुरिन्द्रिय-संयम, पंचेन्द्रिय-संयम, अजीवकाय-संयम, प्रेक्षा-संयम, उपेक्षा-संयम, अपहृत्यसंयम, प्रमार्जना-संयम, मनः-संयम, वचन-संयम, काय-संयम ।
मानुषोत्तर पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचा कहा गया है । सभी वेलन्धर और अनुवेलन्धर नागराजों के आवास पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचे कहे गये हैं । लवणसमुद्र की सर्वाग्र शिखा सत्तरह हजार योजन ऊंची कही गई है ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसम रमणीय भूमि भाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन ऊपर जाकर तत्पश्चात् चारण ऋद्विधारी मुनियों की नन्दीश्वर, रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए तिर्थी गति होती है ।
असुरेन्द्र असुरराज चमर का तिगिछिकूटनामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन