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________________ स्थान- ७/-/६९१ १४५ पुष्य आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा में द्वारवाले हैं, यथा- पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा । स्वाति आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा में द्वारवाले हैं, यथा-स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा । [६९२] जम्बूद्वीप में सोमनस वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट हैं, यथा- [ ६९३] सिद्धकूट, सोमनसकूट, मंगलावतीकूट, देवकूट, विमलकूट, कंचनकूट और विशिष्टकूट । [६९४] जम्बूद्वीप में गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट हैं, यथा[६९५] सिद्धकूट, गंधमादनकूट, गंधिलावतीकूट, उत्तरकुरुकूट, फलिधकूट, लोहिताक्षकूट, आनन्दनकूट 1 [६९६] बेइन्द्रिय की सात लाख कुल कौड़ी हैं । [६९७] जीवों ने सात स्थानों में निवर्तित (संचित ) पुद्गल पाप कर्म के रूप में चयन किये हैं, चयन करते हैं, और चयन करेंगे । इसी प्रकार उपचयन, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के तीन-तीन दण्डक कहें । [६९८] सात प्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, सात प्रदेशावगाढ पुद्गल अनन्त हैं, यावत् सात गुण रुक्ष पुद्गल अनन्त हैं । स्थान- ७ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण स्थान-८ [६९९] आठ गुण सम्पन्न अणगार एकलविहारी प्रतिमा धारण करने योग्य होता है, यथा—–श्रद्धावान, सत्यवादी, मेघावी, बहुश्रुत, शक्तिमान्, अल्पकलही, धैर्यवान्, वीर्यसम्पन्न । [ ७०० ] योनिसंग्रह आठ प्रकार का कहा गया है, यथा- अंडज, पोतज-यावत्उद्भिज और औपपातिक । अंडज आठगति वाले हैं, और आठ आगति वाले हैं । अण्डज यदि अण्डजों में उत्पन्न हो तो अण्डजों से पोतजों से यावत्-औपपातिकों से आकर उत्पन्न होते हैं । वही ड अण्डजपने को छोड़कर अण्डज रूप में यावत् - औपपातिक रूप में उत्पन्न होता है । इसी प्रकार जरायुजों की गति आगति कहें । शेष रसज आदि पाँचों की गति आति न कहें । [ ७०१] जीवों ने आठ कर्म प्रकृतियों का चयन किया है, करते हैं, और करेंगे । यथा - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय । नैरयिकों ने आठ कर्म प्रकृतियों का चयन किया है, करते हैं, और करेंगे । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त कहें । इसी प्रकार उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के सूत्र कहें । प्रत्येक के दण्डक सूत्र कहें । [७०२] आठ कारणों से मायावी माया करके न आलोयणा करता है, न प्रतिक्रमण करता है, - यावत्-न प्रायश्चित्त स्वीकारता है, यथा- मैंने पाप कर्म किया है अब मैं उस पाप की निन्दा कैसे करूं ? मैं वर्तमान में भी पाप करता हूं अतः मैं पाप की आलोचना कैसे 210
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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