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________________ स्थान-६/-/५८९ १३३ [५८९] प्रतिक्रमण छः प्रकार के हैं, यथा- उच्चार प्रतिक्रमण, - मल को परठकर स्थान पर आवे और मार्ग में लगे दोषो का प्रतिक्रमण करे । प्रश्रवण प्रतिक्रमण-मूत्र परठकर पूर्ववत् प्रतिक्रमण करे । इत्वरिक प्रतिक्रमण-थोड़े काल का प्रतिक्रमण यथा-दिन सम्बन्धी प्रतिक्रमण या रात्रि संबंधी प्रतिक्रमण । यावजीवन का प्रतिक्रमण-महाव्रत ग्रहण करना अथवा भक्तपरिज्ञा स्वीकार करना । यत्किंचित् मिथ्या प्रतिक्रमण-जो मिथ्या आचरण हुआ हो उसका प्रतिक्रमण । स्वाप्नान्तिक प्रतिक्रमण-स्वप्न सम्बन्धी प्रतिक्रमण । [५९०] कृत्तिका नक्षत्र के छ: तारे हैं । अश्लेषा नक्षत्र के छः तारे हैं । [५९१] जीवों ने छः स्थानों में अर्जित पुद्गलों को पाप कर्म के रूप में एकत्रित किया हैं । एकत्रित करते हैं और एकत्रित करेंगे । यथा- पृथ्वीकाय निवर्तित-यावत्-त्रसकाय निवर्तित । इसी प्रकार पाप कर्म के रूप में चय, उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरा सम्बन्धी सूत्र हैं । छः प्रदेशी स्कंध अनन्त हैं । छः प्रदेशों में स्थित पुद्गल अनन्त हैं | छः समय की स्थितिवाले पुद्गल अनन्त हैं | छः गुण काले यावत्-छः गुण रूखे पुद्गल अनन्त हैं । स्थान-६ का मुनिदीपरत्नसागर कृत् अनुवाद पूर्ण स्थान-७) [५९२] गण छोड़ने के सात कारण हैं, यथा मैं सब धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधनाओं) को प्राप्त करना (साधना) चाहता हूँ और उन धर्मों (साधनाओं) को मैं अन्य गण में जाकर ही प्राप्त कर (साध) सकूँगा अतः मैं गण छोड़कर अन्य गण में जाना चाहता हूँ । __मुझे अमुक धर्म (साधना) प्रिय है और अमुक धर्म (साधना) प्रिय नहीं है । अतः मैं गण छोड़कर अन्यगण में जाना चाहता हूँ । सभी धर्मो (ज्ञान, दर्शन और चारित्र) में मुझे सन्देह है अतः संशय निवारणार्थ मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ । कुछ धर्मों (साधनाओं) में मुझे संशय है और कुछ धर्मों (साधनाओं) में संशय नहीं है । अतः मैं संशय निवारणार्थ अन्य गण में जाना चाहता हूँ । सभी धर्मों (ज्ञान दर्शन और चारित्र सम्बन्धी) की विशिष्ट धारणाओं को मैं देना (सिखाना) चाहता हूँ । इस गण में ऐसा कोई योग्य पात्र नहीं है अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ । कुछ धर्मों (पूर्वोक्त धारणाओं) को देना चाहता हूँ और कुछ धर्मों (पूर्वोक्त धारणाओं) को नहीं देना चाहता हूं अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ । एकल विहार की प्रतिमा धारण करके विचरना चाहता हूं । [५९३] विभंग ज्ञान सात प्रकार का है, एक दिशा में लोकाभिगम । पाँच दिशा में लोकाभिगम । क्रियावरण जीव । मुदग्रजीव । अमुदग्रजीव । रूपीजीव । सभी कुछ जीव हैं । प्रथम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को एक दिशा का लोकाभिगम ज्ञान उत्पन्न होता है । अतः वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण या उत्तर दिशा में से किसी एक दिशा में अथवा
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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