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स्थान-५/१/४२९
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शरीर पाँच वर्ण, पांच रस, दो गंध और आठ स्पर्श युक्त हैं ।
[४३०] पाँच कारणों से प्रथम और अन्तिम जिन का उपदेश उनके शिष्यों को उन्हें समझने में कठिनाई होती है । दुराख्येय-आयास साध्य व्याख्या युक्त । दुर्विभजन-विभाग करने में कष्ट होता है । दुर्दर्श-कठिनाई से समझ में आता है । दुःसह-परीषह सहन करने में कठिनाई होती है । दुरनुचर-जिनाज्ञानुसार आचरण करने में कठिनाई होती है ।
पाँच कारणों से मध्य के २२ जिनका उपदेश उनके शिष्यों को सुगम होता है । यथा- सुआख्येय-व्याख्या सरलतापूर्वक करते हैं । सुविभाज्य–विभाग करने में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता | सुदर्श-सरलतापूर्वक समझ लेते हैं । सुराह-शांतिपूर्वक परिसह सहन करते है । सुचर-प्रसन्नतापूर्वक जिनाज्ञाअनुसार आचरण करते हैं ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच सद्गुण सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा- क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लघुता ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच सद्गुण सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा १. सत्य, २. संयम, ३. तप, ४. त्याग, ५. ब्रह्मचर्य ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा- उक्षिप्तचारी-'यदि गृहस्थ रांधने के पात्र में से जीमने के पात्र में अपने खाने के लिए आहार ले और उस आहार में से दे तो लेउं ।' निक्षिप्तचारी-रांधने के पात्र में से निकाला हुआ आहार यदि गृहस्थ दे तो लेउँ ।' अंतचारी-भोजन करने के पश्चात् बढ़ा हुआ आहार लेनेवाला मुनि । प्रान्तचारी-तुच्छ आहार लेने वाला रूक्षचारी-लूखा आहार लेने का अभिग्रह करने वाला मुनि |
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिये पाँच अभिग्रह सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा- अज्ञातचारी-अपनी जाति-कुल आदि का परिचय दिये बिना आहार लेना । अन्य ग्लानचारी-दूसरे रोगी के लिए भिक्षा लानेवाला मुनि । मौनचारी-मौनव्रतधारी मुनि । संसृष्टकल्पिक-लेप वाले हाथ से कल्पनीय आहार दे तो लेना । तज्जात संसृष्ट कल्पिक प्रासुक पदार्थ के लेप वाले हाथ से आहार दे तो लेऊं । ऐसे अभिग्रहवाला मुनि ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्र्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण के योग्य कहे हैं । यथा- औपनिधिक अन्य स्थान से लाया हुआ आहार लेने वाला मुनि । शुद्धषणिक-निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला मुनि । संख्यादत्तिक–आज इतनी दत्ति ही आहार लेऊँगा दृष्टलाभिक देखी हुई वस्तु लेने के संकल्प वाला मुनि । पृष्ठलाभिक-आपको आहार दूं ?-ऐसा पूछकर आहार दे तो लेऊं ऐसी प्रतिज्ञावाला मुनि ।
महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण करने योग्य कहे हैं । यथा- आचाम्लिक आयम्बिल करनेवाला मुनि । निर्विकृतिक-घी आदि की विकृति को न लेने वाला मुनि । पुरिमार्धक-दिन के पूर्वार्ध तक प्रत्याख्यान करने वाला मुनि । परिमितपिण्डपातिक परिमित आहार लेने वाला मुनि । भिन्न पिण्डपातिक अखण्ड, नही किन्तु टुकड़े-टुकड़े किया हुआ आहार लेने वाला मुनि ।
महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण योग्य कहे हैं । यथा- अरसाहारी, विरसाहारी, अंताहारी, प्रान्ताहारी, रुक्षाहारी .।