________________
स्थान-४/४/३९८
१०५
में से आकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ।
[३९९] द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा न करने वाला चार प्रकार का संयम करता है यथाजिह्येन्द्रिय के सुख को नष्ट नहीं करता । जिह्वेन्द्रिय सम्बन्धी दुख नहीं देता । स्पर्शेन्द्रिय के सुख को नष्ट नहीं करता । स्पर्शेन्द्रिय समस्बन्धी दुख नहीं देता ।।
द्वीन्द्रिय जीवों की हिंसा करने वाला चार प्रकार का असंयम करता है । यथा
जिह्वेन्द्रिय के सुख को नष्ट करता है । जिह्वेन्द्रिय सम्बन्धी दुख देता है । स्पर्शेन्द्रिय के सुख को नष्ट करता है । स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी दुख देता है ।
[४००] सम्यग्दृष्टि नैरयिक चार क्रियायें करते हैं । यथा- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, और अप्रत्याख्यानक्रिया ।।
विकलेन्द्रिय छोड़कर शेष सभी दण्डकों के जीव चार क्रियायें करते हैं पूर्ववत् ।
[४०१] चार कारणों से पुरुष दूसरे के गुणों को छिपाता है । यथा- क्रोध से, ईर्ष्या से, कृतघ्न होने से और दुराग्रही होने से ।
चार कारणों से पुरुष दूसरे के गुणों को प्रकट करता है । यथा- प्रशंसक स्वभाववाला व्यक्ति । दूसरे के अनुकूल व्यवहारवाला । स्वकार्य साधक व्यक्ति । प्रत्युपकार करने वाला ।
[४०२] चार कारणों से नैरयिक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होती है । यथा- क्रोध से, मान से, माया से, और लोभ से । शेष सभी दण्डवर्ती जीवों के शरीर की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी इन्हीं चार कारणों से होता है ।
चार कारणों से नैरयिकों के शरीर की पूर्णता होती है । क्रोध से यावत् लोभ से । शेष सभी दण्डकवर्ती जीवों के शरीर की पूर्णता भी इन्हीं चार कारणों से होती है । [४०३] धर्म के चार द्वार हैं । यथा- क्षमा, निर्लोभता, सरलता और मृदुता ।
[४०४] चार कारणों से नरक में जाने योग्य कर्म बंधते हैं । महाआरम्भ करने से, महापरिग्रह करने से । पंचेन्द्रिय जीवों को मारने से । मांसाहार करने से ।
चार कारणों से तिर्यंचों में उत्पन्न होने योग्य कर्म बंधते हैं । यथा- मन की कुटिलता से । वेष बदलकर ठगने से । झूठ बोलने से, खोटे तोल माप बरतने से ।
चार कारणों से मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य कर्म बँधते हैं । यथा- सरल स्वभाव से, विनम्रता से, अनुकम्पा से, मात्सर्यभाव न रखने से ।
चार कारणों से देवताओं में उत्पन्न होने योग्य कर्म । बँधते हैं । यथा- सराग संयम से, श्रावक जीवनचर्या से, अज्ञान तप से और अकामनिर्जरा से ।
[४०५] वाद्य चार प्रकार के हैं । यथा- तत (वीणा आदि), वितत (ढोल आदि), धन (कांस्यताल आदि) और शुषिर (बांसुरी आदि) ।।
नाट्य (नाटक) चार प्रकार के हैं । यथा- ठहर-ठहर कर नाचना । संगीत के साथ नाचना । संकेतों से भावभिव्यक्ति करते हुये नाचना । झुककर या लेट कर नाचना ।
गायन चार प्रकार का है । यथा- नाचते हुये गायन करना । छंद (पद्य) गायन । मंद-मंद स्वर से गायन करना । शनैः शनैः स्वर को तेज करते हुए गायन करना ।
पुष्प रचना चार प्रकार की है । यथा- सूत के धागे से गूंथकर की जाने वाली पुष्प रचना । चारों ओर पुष्प बीटकर की जाने वाली रचना । पुष्प आरोपित करके की जाने वाली