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________________ आचार-२/१/१/९/३८९ [३८९] साधु या साध्वी यदि जाने कि दूसरे के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए निकाला गया है, यावत् अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर स्वीकार न करे । यदि गृहस्वामी आदि ने उक्त आहार ले जाने कि भलीभांति अनुमति दे दी है । उन्होने वह आहार उन्हे अच्छी तरह से सोंप दिया है यावत तुम जिसे चाहे दे सकते हो तो उसे यावत् प्रासुक और एषणीय समझकर ग्रहण कर लेवें । - यहीं उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है ।ऐसा मैं कहता हुँ । | अध्ययन-१ उद्देशक-१० | [३९०] कोई भिक्षु साधारण आहार लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछे ही जिसे चाहता है, उसे बहुत दे देता है, तो ऐसा करके वह माया-स्थान का स्पर्श करता है । उसे ऐसा नहीं करना चाहिए । असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए; कहे– “आयुष्मन् श्रमणो ! यहाँ मेरे पूर्व-परिचित तथा पश्चात्-परिचित, जैसे कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक आदि, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं इन्हें पर्याप्त आहार दूँ ।" उसके इस प्रकार कहने पर यदि गुरुजनादि कहें— 'आयुष्मन् श्रमण ! तुम अपनी इच्छानुसार उन्हें यथापर्यास आहार दे दो ।' वह साधु जितना वे कहें, उतना आहार उन्हें दे । यदि वे कहें कि 'सारा आहार दे दो', तो सारा का सारा दे दे । _[३९१] यदि कोई भिक्षु भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तुच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ इस आहार को देखकर स्वयं न ले लें, मुझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है । ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है । साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए । वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य आदि के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोल कर पात्र को हाथ में ऊपर उठा कर एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे । कोई भी पदार्थ जरा- भी न छिपाए । __ यदि कोई भिक्षु गृहस्थ के घर से प्राप्त भोजन को लेकर मार्ग में ही कहीं, सरस-सरस आहार को स्वयं खाकर शेष बचे तुच्छ एवं नीरस आहार को लाता है, तो ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का सेवन करता है । साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए । [३९२] साधु या साध्वी यदि यह जाने कि वहाँ ईक्ष के पर्व का मध्य भाग है, पर्वसहित इक्षुखण्ड है, पेरे हुए ईख के छिलके हैं, छिला हुआ अग्रभाग है, ईख की बड़ी शाखाएँ हैं, छोटी डालियाँ हैं, मूंग आदि की तोड़ी हुई फली तथा चौले की फलियाँ पकी हुई हैं, परन्तु इनके ग्रहण करने पर इनमें खाने योग्य भाग बहुत थोड़ा और फेंकने योग्य भाग बहुत अधिक है, इस प्रकार के अधिक फेंकने योग्य आहार को अकल्पनीय और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी न ले । साधु या साध्वी यदि यह जाने कि इस गूदेदार पके फल में बहुत गुठलियाँ हैं, या इस अनन्नास में बहुत कांटे हैं, इसे ग्रहण करने पर इस आहार में खाने योग्य भाग अल्प है, फेंकने योग्य भाग अधिक है, तो इस प्रकार के गूदेदार फल के प्राप्त होने पर उसे अकल्पनीय
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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