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________________ ८६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद समझ कर न ले । भिक्षु या भिक्षुणी आहार के लिए प्रवेश करे, तब यदि वह बहुत-सी गुठलियों एवं बीज वाले फलों के लिए आमंत्रण करे तो इस वचन सुनकर और उस पर विचार करके पहले ही साधु उससे कहे बहुत-से बीज-गुठली से युक्त फल लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है । यदि तुम मुझे देना चाहते हो तो इस फल का जितना गूदा है, उतना मुझे दे दो, बीज-गुठलियाँ नहीं । भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ अपने बर्तन में से उपर्युक्त फल लाकर देने लगे तो जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में वह हो तभी उस को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर लेने से मना कर दे इतने पर भी वह गृहस्थ हठात् साधु के पात्र में डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे, न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा कहे, किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त में जाए । वहाँ जाकर जीव-जन्तु, काई, लीलण-फूलण, गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि से रहित किसी निरवद्य उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सार भागका उपभोग करे और फेंकने योग्य बीज, गुठलियों एवं कांटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए, यावत् प्रमार्जन करके उन्हें परठ दे । [३९३] साधु या साध्वी को यदि गृहस्थ बीमार साधु के लिए खांड आदि की याचना करने पर अपने घर के भीतर रखे हुए बर्तन में से बिड-लवण या उद्भिज-लवण को विभक्त करके उसमें से कुछ अंश निकाल कर, देने लगे तो वैसे लवण को जब वह गृहस्थ के पात्र में या हाथ में हो तभी उसे अप्रासुक, अनेषणीय समझ कर लेने से मना कर दे । कदाचित् सहसा उस नमक को ग्रहण कर लिया हो, तो मालूम होने पर वह गृहस्थ यदि निकटवर्ती हो तो, लवणादि को लेकर वापिस उसके पास जाए । वहाँ जाकर कहे - आयुष्मन् गृहस्थ तुमने मुझे यह लवण जानबूझ कर दिया है, या अनजाने में ? यदि वह कहे - अनजाने में ही दिया है, किन्तु आयुष्मन् ! अब यदि आपके काम आने योग्य है तो मैं आपको स्वेच्छा से जानबूझ कर दे रहा हूं । आप अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करें या परस्पर बांट लें ।' घरवालों के द्वारा इस प्रकार की अनुज्ञा मिलने तथा वह वस्तु समर्पित की जाने पर साधु अपने स्थान पर आकर (अचित्त हो तो) उसे यतनापूर्वक खाए तथा पीए । यदि स्वयं उसे खाने या पीने में असमर्थ हो तो वहाँ आस-पास जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ एवं अपारिहारिक साधु रहते हों, उन्हें दे देना चाहिए । यदि वहाँ आसपास कोई साधर्मिक आदि साधु न हों तो उस पर्यास से अधिक आहार को जो परिष्ठापनविधि बताई है, तदनुसार एकान्त निरवद्य स्थान में जाकर परठ दे । यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की समग्रता है । | अध्ययन-१ उद्देशक-११ [३९४] स्थिरवासी सम-समाचारी वाले साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करनेवाले साधु भिक्षा में मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर कहते हैं - जो भिक्षु ग्लान है, उसके लिए तुम यह मनोज्ञ आहार ले लो और उसे दे दो । अगर वह रोगी भिक्षु न खाए तो तुम खा लेना । उस भिक्षु ने उनसे वह आहार को अच्छी तरह छिपाकर रोगी भिक्षु को दूसरा आहार दिखलाते हुए कहता है – भिक्षुओं ने आपके लिए यह आहार दिया है । किन्तु यह आहार आपके ०
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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