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________________ ८४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद जाए-आए नहीं । बल्कि स्वजनादि या श्रद्धालु परिचित घरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त में खड़ा हो जाए । ऐसे स्वजनादि सम्बद्ध ग्राम आदि में भिक्षा के समय प्रवेश करे और स्वजनादि से भिन्न अन्यान्य घरों से सामुदानिक रूप से एषणीय तथा वेषमात्र से प्राप्त निर्दोष आहार उपभोग करे । ___यदि कदाचित् भिक्षा के समय प्रविष्ट साधु को देख कर वह गृहस्थ उसके लिए आधाकर्मिक आहार बनाने के साधन जुटाने लगे या आहार बनाने लगे, उसे देखकर भी वह साधु इस अभिप्राय से चुपचाप देखता रहे कि 'जब यह आहार लेकर आएगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर देगा.' यह माया का स्पर्श करना है । साध ऐसा न करे । वह पहले से ही इस पर ध्यान दे और कहे- “आयुष्मन् ! इस प्रकार का आधाकर्मिक आहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है । अतः मेरे लिए न तो इसके साधन एकत्रित करो और न इसे बनाओ ।" उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ आधाकर्मिक आहार बनाकर लाए और साधु को देने लगे तो वह साधु उस आहार को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी न ले । [३८५] गृहस्थ के घर में साधु या साध्वी के प्रवेश करने पर उसे यह ज्ञात हो जो कि वहाँ अपने किसी अतिथि के लिए मांस या मत्स्य भूना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाए जा रहे हैं, इसे देखकर वह अतिशीघ्रता से पास में जाकर याचना न करे । रुग्ण साधु के लिए अत्यावश्यक हो तो किसी पथ्यानुकूल सात्विक आहार की याचना कर सकता है । [३८६] गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुगन्धित आहार स्वयं खा लेता है और दुर्गन्धित बाहर फेंक देता है, वह माया-स्थान का स्पर्श करता है । उसे ऐसा नहीं करना चाहिए । जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपभोग करे, उसमें से किंचित् भी फेंके नहीं । [३८७] गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट जो साधु-साध्वी वहाँ से यथाप्राप्त जल लेकर वर्ण-गन्ध-युक्त पानी को पी जाते हैं और कसैला पानी फेंक देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं । ऐसा नहीं करना चाहिए । जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो, उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर नहीं डालना चाहिए । [३८८]भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी उसके यहाँ से बहुत-सा नाना प्रकार का भोजन ले आएँ तब वहाँ जो साधर्मिक, सांभोगिक समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु-साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु-साध्वी उस आहार को परठ देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं । वह साधु उस आहार को लेकर उन साधर्मिक, समनोज्ञ साधुओं के पास जाए । वहाँ जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और इस प्रकार कहे- आयुष्मन् श्रमणो ! यह चतुर्विध आहार हमारी आवश्यकता से बहुत अधिक है, अतः आप इसका उपभोग करें, और अन्यान्य भिक्षुओं को वितरित कर दें । इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु यों कहे कि'आयुष्मन् श्रमण ! इस आहार में से जितना हम खा-पी सकेंगे, खा-पी लेंगे, अगर हम यह सारा का सारा उपभोग कर सके तो सारा खा-पी लेंगे । यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनादि की) समग्रता है । ऐसा मैं कहता हूँ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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