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________________ ५८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि मैं दूसरे वस्त्र की याचना करूँगा । वह यथा-एषणीय वस्त्र की याचना करे । यहाँ से लेकर आगे ‘ग्रीष्मऋतु आ गई है' तक का वर्णन पूर्ववत् । भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करे । यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके वह एक शाटक में ही रहे, (अथवा) वह अचेल हो जाए । वह लाघवता का सब तरह से विचार करता हुआ (वस्त्र परित्याग करे) । वस्त्र-विमोक्ष करने वाले मुनि को सहज ही तप प्राप्त हो जाता हैं । भगवान् ने जिस प्रकार से उस का निरूपण किया है, उसे उसी रूप में निकट से जानकर यावत् समत्व को जानकर आचरण में लाए । [२३२] जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ,' वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे । (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय-विमोक्ष करे तो) उसे तप सहज में प्राप्त हो जाता है । भगवान् ने इसका जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से, यावत् सम्यक् प्रकार से जानकर क्रियान्वित करे । [२३३] वह भिक्षु या भिक्षुणी अशन आदि आहार करते समय आस्वाद लेते हुए बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए । यह अनास्वाद वृत्ति से लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (आहार करे) । (स्वाद-विमोक्ष से) वह तप का सहज लाभ प्राप्त करता है । . भगवान् ने जिस रूप में स्वाद-विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) सम्यक्त्व या समत्व को जाने और सम्यक् रूप से परिपालन करे । [२३४] जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में क्रमशः प्लान हो रहा हूँ, वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे और कषायों को कृश करे । समाधियुक्त लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर ले । [२३५] क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में प्रवेश करके घास की याचना करे । उसे लेकर एकान्त में चला जाए । वहाँ जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव-जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, उदक, चीटियों के बिल, फफूंदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के जाले न हों, वैसे स्थान का बार-बार प्रतिलेखन करके, प्रमार्जन करके, घास का संथारा करे | उस पर स्थित हो, उस समय इत्वरिक अनशन ग्रहण कर ले । वह सत्य है । वह सत्यवादी, राग-द्वेष रहित, संसार-सागर को पार करनेवाला, 'इंगितमरण की प्रतिज्ञा निभेगी या नहीं ?' इस प्रकार के लोगों के कहकहे से मुक्त या किसी भी रागात्मक कथा-कथन से दूर जीवादि पदार्थों का सांगोपांग ज्ञाता अथवा सब बातों से अतीत, संसार पारगामी इंगितमरण की साधना को अंगीकार करता है ।
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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