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________________ आचार- १/८/६/२३५ ५९ वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़कर नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके इस में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन का अनुपालन करे । तब ऐसा करने पर भी उसकी, वह काल मृत्यु होती है । उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया करनेवाला भी हो सकता है । इस प्रकार यह मोहमुक्त भिक्षुओं का आयतन हितकर, सुखकर, क्षमारूप या कालोपयुक्त, निःश्रेयस्कर और भवान्तर में साथ चलनेवाला होता है । ऐसा मैं कहता हूँ । - अध्ययन-८ - उद्देशक - ७ [२३६] जो भिक्षु अचेल - कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के स्पर्श सहन कर सकता हूँ, सर्दी का स्पर्श सह सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, डांस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न-भिन्न जाति, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शो को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ प्रतिच्छादन को छोड़ने में समर्थ नहीं हूँ । ऐसी स्थिति में वह भिक्षु कटिबन्धन धारण कर सकता हैं । [२३७] अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार-बार घास का स्पर्श चुभता हैं, शीत का स्पर्श होता हैं, गर्मी का स्पर्श होता है, डांस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल उन एकजातीय या भिन्न-भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे । लाघव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुआ ( वह अचेल रहे ) । अचेल मुनि को तप का सहज लाभ मिल जाता है । अतः जैसे भगवान् ने अचेलत्व का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जान कर, सब प्रकार से, सर्वात्मना सम्यक्त्व या समत्व को भलीभाँति जानकर आचरण में लाए । [२३८] जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा । (१) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा । ( २ ) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर नहीं दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाए हुए का सेवन करूँगा । (३) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर नहीं दूँगा और न ही उनके द्वारा लाए हुए का सेवन करूँगा । (४) ( अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि) मैं अपनी आवश्यक्ता से अधिक, अपनी कल्पमर्यादानुसार एषणीय एवं ग्रहणीय तथा अपने लिए यथोपलब्ध लाए हुए अशन आदि में से निर्जरा के उद्देश्य से साधर्मिक मुनियों की सेवा करूँगा, (अथवा ) मैं भी उन साधर्मिक मुनियों की जाने वाली सेवा को रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा । (५) वह लाघव का सर्वागीण विचार करता हुआ (सेवा का संकल्प करे ) । उस भिक्षु को तप का लाभ अनायास ही प्राप्त हो जाता हैं । भगवान् ने जिस प्रकाल से इस का प्रतिपादन किया हैं, उसे उसी रूप में जान कर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व या समत्व को
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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