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आचार-१/८/५/२२९
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भगवान् ने इस (वस्त्र-विमोक्ष के तत्त्व) को जिस रूप में प्रतिपादित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व क्रियान्वित करे ।
जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैं दुर्बल हो गया हूँ । अतः मैं भिक्षाटन के लिए एक घर से दूसरे घर जाने में समर्थ नहीं हूँ । उसे सुनकर कोई गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य लाकर देने लगे तब वह भिक्षु पहले ही गहराई से विचारे - “आयुष्मन् गृहपति ! यह अभ्याहृत अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य मेरे लिए सेवनीय नहीं है, इसी प्रकार दूसरे (दोपों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए ग्रहणीय नहीं है) ।"
[२३०] जिस भिक्षु का यह प्रकल्प होता हैं कि मैं स्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अप्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया हैं, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा से साधर्मिकों द्वारा की जानी वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा । (१)
(अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु म्लान है, मैं अप्लान हूँ; उसने अपनी सेवा के लिए मुझे अनुरोध नहीं किया है, (पर) मैंने उसकी सेवा के लिए उसे वचन दिया है । अतःनिर्जरा के उद्देश्य से उस साधर्मी की मैं सेवा करूँगा । जिस भिक्षु का ऐसा प्रकल्प हो, वह उसका पालन करता हुआ प्राण त्याग कर दे, (प्रतिज्ञा भंग न करे) । (२)
कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, तथा उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन भी करूँगा । (३)
(अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं अपने ग्लान साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन नहीं करूँगा । (४)
(अथवा) कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा लेता है कि मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊँगा, किन्तु उनके द्वारा लाया हुआ सेवन करूँगा । (५)
(अथवा) कोई भिक्षु प्रतिज्ञा करता है कि न तो मैं साधर्मिकों के लिए आहारादि लाऊँगा और न ही मैं उनके द्वारा लाये हुए आहारादि का सेवन करूँगा । (६)
(यों उक्त छः प्रकार की प्रतिज्ञा भंग न करे, भले ही वह जीवन का उत्सर्ग कर दे ।
आहार-विमोक्ष साधक को अनायास ही तप का लाभ प्राप्त हो जाता है । भगवान् ने जिस रूप में इस का प्रतिपादन किया हैं, उसे उसी रूप में निकट से जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना समत्व या सम्यक्त्व का सेवन करे ।
इस प्रकार वह भिक्षु तीर्थंकरो द्वारा जिस रूप में धर्म प्ररूपित हुआ है, उसी रूप में सम्यक्प से जानता और आचरण करता हुआ, शान्त विरत और अपने अन्तःकरण की प्रशस्त वृत्तियों में अपनी आत्मा को सुसमाहित करनेवाला होता है । उसकी वह मृत्यु कालमृत्यु है । वह अन्तक्रिया करनेवाला भी हो सकता है ।
इस प्रकार यह शरीरादि मोह से विमुक्त भिक्षुओं का अयतन है, हितकर है, सुखकर है, सक्षम है, निःश्रेयस्कर है, और परलोक में भी साथ चलनेवाला है ।- ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन-८-उद्देशक-६ [२३१] जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चुका है,