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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
आपको लाघवयुक्त जानता हुआ वह अचेलक एवं तितिक्षु भिक्षु तप से सम्पन्न होता है ।
___ भगवान् ने जिस रूप में अचेलत्व का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में जानसमझकर, सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व जाने ।
जीवन के पूर्व भाग में प्रव्रजित होकर चिरकाल तक संयम में विचरण करनेवाले, चारित्र-सम्पन्न तथा संयम में प्रगति करनेवाले महान् वीर साधुओं ने जो (परीपहादि) सहन किये हैं, उसे तू देख ।
[१९९] प्रज्ञावान् मुनियों की भुजाएं कृश होती हैं, उनके शरीर में रक्त-मांस बहुत कम हो जाते हैं ।
संसार-वृद्धि की राग-द्वेष-कषायरूप श्रेणी को प्रज्ञा से जानकर छिन्न-भिन्न करके वह मुनि तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता हैं, ऐसा मैं कहता हूँ ।
[२००] चिरकाल से मुनिधर्म में प्रव्रजित, विरत और संयम मे गतिशील भिक्षु का क्या अरति धर दबा सकती हैं ? (आत्मा के साथ धर्म का) संधान करनेवाले तथा सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती) । जैसे असंदीन द्वीप (यात्रियों के लिए) आश्वासन-स्थान होता हैं, वैसे ही आर्य द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार-समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता हैं ।
मुनि (भोगों की) आकांक्षा तथा प्राण-वियोग न करने के कारण लोकप्रिय, मेधावी और पण्डित कहे जाते हैं । जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का पालन किया जाता है, उसी प्रकार धर्म में जो अभी तक अनुत्थित हैं, उन शिष्यों का वे क्रमशः वाचना आदि के द्वारा रातदिन पालन-संवर्द्धन करते हैं । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
[२०१] इस प्रकाल वे शिष्य दिन और रात में उन महावीर और प्रज्ञानवान द्वारा क्रमशः प्रशिक्षित किये जाते हैं ।
उन से विशुद्ध ज्ञान पाकर उपशमभाव को छोड़कर कुछ शिष्य कठोरता अपनाते हैं । वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी उस आज्ञा को 'यह (तीर्थंकर की आज्ञा) नहीं हैं', ऐसा मानते हुए (गुरुजनों के वचनों की अवहेलना कर देते हैं ।)
कुछ व्यक्ति (आचार्यादि द्वारा) कथित (दुष्परिणामों) को सुन-समझकर 'हम (आचार्यादि से) सम्मत या उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे' इस प्रकार के संकल्प से प्रव्रजित होकर वे (मोहोदयवश) अपने संकल्प के प्रति सुस्थिर नहीं रहते । वे विविध प्रकार से जलते रहते हैं, काम-भोगों में गृद्ध या रचे-पचे रहकर (तीर्थंकरो द्वारा) प्ररूपित समाधि को नहीं अपनाते, शास्ता को भी वे कठोर वचन कह देते हैं ।
[२०२] शीलवान्, उपशान्त एवं संयम-पालन में पराक्रम करने वाले मुनियों को वे अशीलवान् कहकर बदनाम करते हैं ।
यह उन मन्दबुद्धि लोगों की मूढ़ता है ।
[२०३] कुछ संयम से निवृत्त हुए लोग आचार-विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो गए, वे सम्यग्दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चास्त्रि-भ्रष्ट हो जाते हैं ।
२०४] कई साधक नत (समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं । कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट होने पर केवल जीवन जीने के निमित्त से