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________________ आचार-१/६/४/२०४ ५१ (संयम और संयमीवेश से) निवृत्त हो जाते हैं । ___उन का गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण हो जाता हैं, क्योंकि साधारण जनो द्वारा भी वे निन्दनीय हो जाते हैं तथा (आसक्त होने से)वे पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं । ज्ञान-दर्शन-चारित्र में वे नीचे के स्तर के होते हुए भी अपने आपको ही विद्वान् मानकर 'मैं ही सर्वाधिक विद्वान् हूँ', इस प्रकार से डींग मारते हैं । जो उनसे उदासीन रहते हैं, उन्हें वे कठोर वचन बोलते हैं । वे (उन मध्यस्थ मुनियों के पूर्व-आचरित) कर्म को लेकर बकवास करते हैं, अथवा असत्य आरोप लगाकर उन्हें बदनाम करते हैं । बुद्धिमान् मुनि (इन सबको अज्ञ एवं धर्म-शून्य जन की चेष्टा समझकर) अपने धर्म को भलीभांति जाने-पहचाने । [२०५] (धर्म से पतित को इस प्रकार अनुशासित करते हैं -) तू अधर्मार्थी है, बाल है, आरम्भार्थी है, (आरम्भकर्ताओं का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है -) प्राणियों का हनन करो प्राणियों का वध करने वाले का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है । (भगवान् ने) घोर धर्म का प्रतिपादन किया है, तू आज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है । वह (अधर्मार्थी) विषण्ण और वितर्द (हिंसक) कहा गया है । - ऐसा मैं कहता हूँ । [२०६] ओ (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का मैं क्या करूँगा ? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं । दीन और पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक हो जाते हैं । उनमें से कुछ साधकों की श्लाघारूप कीर्ति पाप रूप हो जाती है; - "यह श्रमण विभ्रान्त है, यह श्रमण विभ्रान्त है ।" देख ! संयम से भ्रष्ट होने वाले कई मुनि उत्कृष्ट आचार वालों के बीच शिथिलाचारी, समर्पित मुनियों के बीच असमर्पित, विरत मुनियों के बीच अविरत तथा साधुओं के बीच (चारित्रहीन) होते हैं । (इस प्रकार संयम-भ्रष्ट साधकों को) निकट से भली-भाँति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ वीर मुनि सदा आगम के अनुसार (संयम में) पराक्रम करे । - ऐसा मैं कहता हूँ । अध्ययन-६-उद्देशक-५ [२०७] वह (धूत/श्रमण) घरों में, गृहान्तरों में, ग्रामों में, ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में, जनपदों में या जनपदान्तरों में (आहारादि के लिए विचरण करते हुए) कुछ विद्वेषी जन हिंसक हो जाते हैं । अथवा (परिषहों के) स्पर्श प्राप्त होते हैं । उनसे स्पृष्ट होन पर धीर मुनि उन सबको सहन करे । राग और द्वेष से रहित सम्यग्दर्शी एवं आगमज्ञ मुनि लोक पर दया भावपूर्वक सभी दिशाओं और विदिशाओं में (स्थित) जीवलोक को धर्म का आख्यान करे । उसका विभेद करके, धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे । वह मुनि सद्ज्ञान सुनने के इच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे उत्थित हों या अनुत्थित, शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव एवं अहिंसा का
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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