SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार-१/५/५/१७६ किसी वस्तु को असम्यक् मान रहा है, वह सम्यक् हो या असम्यक्, उसके लिए वह असम्यक् ही होती है । (इस प्रकार) उत्प्रेक्षा करनेवाला उत्प्रेक्षा नहीं करनेवाले से कहता है - सम्यक् भाव समभाव-माध्यस्थभाव से उत्प्रेक्षा करो । इस (पूर्वोक्त) प्रकार से व्यवहार में होने वाली सम्यक्असम्यक् की गुत्थी सुलझाई जा सकती है । तुम (संयम में सम्यक् प्रकार से) उत्थित और स्थित की गति देखो । तुम बाल भाव में भी अपने-आपको प्रदर्शित मत करो । [१७७] तू वही है, जिसे तू हनन योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है । ज्ञानी पुरुष ऋजु होता है, वह प्रतिबोध पाकर जीनेवाला होता है । इस के कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है । (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है ।) कृत-कर्म के अनुरुप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी का हनन करने की इच्छा मत करो । [१७८] जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । क्योंकि ज्ञानों से आत्मा जानता है, इसलिए वह आत्मा है । उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से आत्मा की प्रतीति होती है । यह आत्मवादी सम्यक्ता का पारगामी कहा गया है। ऐसा मै कहता हुं । | अध्ययन-५-उद्देशक-६] [१७९] कुछ साधक अनाज्ञा में उद्यमी होते हैं और कुछ साधक आज्ञा में अनुद्यमी होते हैं । यह तुम्हारे जीवन में न हो । यह (अनाज्ञा में अनुद्यम और आज्ञा में उद्यम) मोक्ष मार्ग-दर्शन-कुशल तीर्थंकर का दर्शन है । साधक उसी में अपनी दृष्टि नियोजित करे, उसी मुक्ति में अपनी मुक्ति माने, सब कार्यो में उसे आगे करके प्रवृत्त हो, उसी के संज्ञानस्मरण में संलग्न रहे, उसी में चित्त को स्थिर कर दे, उसी का अनुसरण करे । [१८०] जिसने परीषह-उपसर्गो-बाधाओं तथा घातिकर्मों को पराजित कर दिया है, उसी ने तत्त्व का साक्षात्कार किया है । जो ईससे अभिभूत नहीं होता, वह निरालम्बनता पाने में समर्थ होता है । जो महान् होता है उसका मन (संयम से) बाहर नहीं होता । प्रवाद (सर्वज्ञ तीर्थंकरो के वचन) से प्रवाद (विभिन्न दार्शनिकों या तीथिकों के बाद) को जानना चाहिए । (अथवा) पूर्वजन्म की स्मृति से, तीर्थंकर से प्रश्न का उत्तर पाकर, या किसी अतिशय ज्ञानी या निर्मल श्रुत ज्ञानी आचार्यादि से सुन कर (यथार्थ तत्त्व को जाना जा सकता ) । [१८१] मेधावी निर्देश (तीर्थंकरादि के आदेश) का अतिक्रमण न करे । वह सब प्रकार से भली-भाँति विचार करके सम्पूर्ण रूप से पूर्वोक्त जाति-स्मरण आदि तीन प्रकार से
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy