________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
वह निर्बल आहार करे, ऊनोदरिका भी करे, ऊर्ध्व स्थान होकर कायोत्सर्ग करे ( आतापना ले), ग्रामानुग्राम विहार भी करे, आहार का परित्याग करे, स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन का परित्याग करे ।
४४
(स्त्री - संग में रत अतत्त्वदर्शियों को कहीं-कहीं ) पहले दण्ड मिलता है और पीछे (दुःखों का) स्पर्श होता है, अथवा कहीं-कहीं पहले (स्त्री- सुख) स्पर्श. मिलता है, बाद में उसका दण्ड ( मार-पीट, आदि) मिलता है ।
इसलिए ये काम - भोग कलह और आसक्ति पैदा करने वाले होते हैं । स्त्री - संग से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुष्परिणामों को आगम के द्वारा तथा अनुभव द्वारा समझ कर आत्मा को उनके अनासेवन की आज्ञा दे । ऐसा मैं कहता हूँ ।
-
-
ब्रह्मचारी कामकथा न करे, वासनापूर्वक द्रष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, उन पर ममत्व न करे, शरीर की साज-सज्जा से दूर रहे, वचनगुप्ति का पालक वाणी से कामुक आलाप न करे, मन को भी कामवासना की ओर ते हुए नियंत्रित करे, सतत पापका परित्याग करे । इस (अब्रह्मचर्य - विरति रूप) मुनित्व को जीवन में सम्यक् प्रकार से बसा ले । ऐसा मैं कहता हूँ ।
अध्ययन- ५ - उद्देशक - ५
[१७३] मैं कहता हूँ- जैसे एक जलाशय जो परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्त्रोत के मध्य में स्थित है । (ऐसा ही आचार्य होता है) । इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः गुप्त महर्पियों को तू देख, जो उत्कृष्ट ज्ञानवान् ( आगमश्रुत ज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध हैं और आरम्भ से विरत हैं ।
यह (मेरा कथन ) सम्यक् है, इसे तुम अपनी तटस्थ बुद्धि से देखो ।
काल प्राप्त होने की कांक्षा-समाधि मरण की अभिलाषा से (जीवन के अन्तिम क्षण तक मोक्षमार्ग में) परिव्रजन ( उद्यम ) करते हैं । ऐसा मैं कहता हूँ ।
[१७४] विचिकित्सा - प्राप्त आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता ।
कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध) आचार्य का अनुगमन करते हैं, कुछ असित (अप्रतिबद्ध) भी विचिकित्सादि रहित होकर (आचार्य का) अनुगमन करते हैं । इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हुआ अनुगमन न करने वाला कैसे उदासीन नहीं होगा ?
[१७५] वही सत्य है, जो तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित है ।
[१७६] श्रद्धावान् सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा शील एवं प्रव्रज्या को सम्यक् स्वीकार करने या पालने वाला (१) कोई मुनि जिनोक्त तत्त्व को सम्यक् मानता है और उस समय (उत्तरकाल में ) भी सम्यक् ( मानता ) रहता है । (२) कोई प्रव्रज्याकाल में सम्यक् मानता है, किन्तु बाद में किसी समय उसका व्यवहार असम्यक् हो जाता है । (३) कोई मुनि ( प्रव्रज्याकाल में) असम्यक् मानता है किन्तु एक दिन सम्यक् हो जाता है । (४) कोई साधक उसे असम्यक् मानता है और बाद में भी असम्यक् मानता रहता है । ( ५ ) ( वास्तव में ) जो साधक सम्यक् हो या असम्यक्, उसकी सम्यक् उत्प्रेक्षा के कारण वह सम्यक् ही होती है । (६) जो साधक