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आचार-१/५/३/१६८
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मुनि मुनित्व ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को प्रकम्पित करें। समत्वदर्शी वीर प्रान्त और रूखा आहारादि सेवन करते हैं । इस जन्म-मृत्यु के प्रवाह को तैरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
| अध्ययन-५ उद्देशक-४|| [१६९] जो भिक्षु (अभी तक) अव्यक्त अवस्था में है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात् और दुष्पराक्रम है ।
[१७०] कई मानव थोड़े-से प्रतिकूल वचन सुनकर भी कुपित हो जाते हैं । स्वयं को उन्नत मानने वाला अभिमानी मनुष्य प्रबल मोह से मूढ़ हो जाता है । उस को एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्गजनित एवं रोग-आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएँ वारबार आती हैं, तब उस अज्ञानी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है। (ऐसी अव्यक्त अपरिपक्व अवस्था में - मैं अकेला विचरण करूँ), ऐसा विचार तुम्हारे मन में भी न हो ।
यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है । अतः परिपक्क साधक उस (वीतराग महावीर के दर्शन में) ही एकमात्र द्रष्टि रखे, उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायासक्ति से मुक्ति में मुक्ति माने, उसी को आगे रखकर विचरण करे, उसी का संज्ञान सतत सब कार्यों में रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे । मुनि यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र कर, मार्ग का सतत अवलोकन करते हुए चले । जीव-जन्तु को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे ।
[१७१] वह भिक्षु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता समस्त अशुभप्रवृत्तियों से निवृत्त होकर, सम्यक् प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएँ करे ।
__ किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित अप्रमादी मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर प्राणी परिताप पाते हैं । कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, तो उसके इस जन्म में वेदन करने योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है । (किन्तु) आकुट्टि से प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर दस प्रकार के प्रायश्चित में से किसी प्रायश्चित से करें ।
__ इस प्रकार उसका (कर्मबन्ध का) विलय अप्रमाद (से यथोचित प्रायश्चित्त से) होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं ।
[१७२] वह प्रभूतदर्शी, प्रभूत परिज्ञानी, उपशान्त, समिति से युक्त, सहित, सदा यतनाशील या इन्द्रियजयी अप्रमत्त मुनि (उपसर्ग करने) के लिए उद्यत स्त्रीजन को देखकर अपने आपका पर्यालोचन करता है - 'यह स्त्रीजन मेरा क्या कर लेगा ?' वह स्त्रियाँ परम आराम हैं । (किन्तु मैं तो सहज आत्मिक-सुख से सुखी हूँ, ये मुझे क्या सुख देंगी ?)
ग्रामधर्म - (इन्द्रिय-विषयवासना) से उत्पीड़ित मुनि के लिए मुनीन्द्र तीर्थंकर महावीर ने यह उपदेश दिया है कि -