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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
मरण तक त्याग किया हुआ है, उनमें उत्पन्न होते हैं । अतः उनके सम्बन्ध में किया हुआ श्रमणोपास का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । वे प्राणी भी कहलाते हैं, यहाँ तक कि चिरकाल की स्थिति वाले भी होते हैं । अतः श्रपणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय बताना न्याययुक्त नहीं है ।
(७) श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि से बाहर जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिन को व्रतग्रहण-समय से मृत्युपर्यन्त श्रमणोपासक ने दण्ड देने का त्याग कर दिया है; वे प्राणी आयुक्षीण होते ही शरीर छोड़ देते है, वे श्रमणोपासक द्वारा स्वीकृत मर्यादाभूमि के अन्दर जो त्रस प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतारम्भ से लेकर आयुपर्यन्त त्याग किया हुआ है, उनमें उत्पन्न होते हैं । इन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है । क्योंकि वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी तथा महाकाय भी एवं चिरस्थितिक भी होते हैं । अतः आपके द्वारा श्रमणोपासक के उक्त प्रत्याख्यान पर निर्विषयता का आक्षेप न्यायसंगत नहीं है ।
श्रमणोपासक द्वारा मर्यादित क्षेत्र के बाहर जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण काल से लेकर मृत्युपर्यन्त त्याग किया है; वे प्राणी वहाँ से आयुष्य पूर्ण होने पर श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादित भूमि के अन्दर जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रमणोपासक ने प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है, किन्तु निष्प्रयोजन दण्ड देने का त्याग किया है, उनमें उत्पन्न होते हैं । अतः उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रमणोपासक द्वारा किया हुआ प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । वे प्राणी भी है, यावत् दीर्घायु भी होते हैं । फिर भी आपके द्वारा श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान को निर्विषय कहना न्यायपूर्ण नहीं है ।
(९) श्रावक द्वारा निर्धारित मर्यादाभूमि के बाहर त्रस-स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहणारम्भसे लेकर मरणपर्यन्त त्याग कर रखा है; वे प्राणी आयुष्यक्षय होने पर शरीर छोड़ देते हैं । वे उसी श्रमणोपासक द्वारा निर्धारित भूमि के बाहर ही जो त्रसस्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देने का श्रमणोपासक ने व्रतग्रहण से मृत्युपर्यन्त त्याग किया हुआ है, उन्हीं में पुनः उत्पन्न होते हैं । अतः श्रमणोपासक द्वारा किया गया प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है । वे प्राणी भी कहलाते हैं, यावत् चिरकाल तक स्थिति वाले भी हैं । ऐसी स्थिति में आपका यह कथन न्याययुक्त नहीं कि श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान निर्विषय है ।
(अन्त में) भगवान गौतम ने कहा-भूतकाल में ऐसा कदापि नहीं हुआ, न वर्तमान में ऐसा होता है और न ही भविष्यकाल में ऐसा होगा कि त्रस-प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएँगे,
और सब के सब प्राणी स्थावर हो जाएँगे, अथवा स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएंगे और वे सब के सब प्राणी त्रस हो जाएँगे । त्रस और स्थावर प्राणियों को सर्वथा उच्छेद न होने पर भी आपका यह कथन कि कोई ऐसा पर्याय नहीं है, जिसको लेकर श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान हो, यावत् आपका यह मन्तव्य न्यायसंगत नहीं है ।
[८०६] भगवान् गौतम स्वामी ने उनसे कहा-"आयुष्मन् उदक ! जो व्यक्ति श्रमण अथवा माहन की निन्दा करता है वह साधुओं के प्रति मैत्री रखता हुआ भी, ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को प्राप्त करके भी, हिंसादि पापों तथा तजनित पापकर्मों को न करने के लिए उद्यत वह अपने परलोक के विघात के लिए उद्यत है । जो व्यक्ति श्रमण या माहन की निन्दा नहीं